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तिरुज्ञान संबन्धर नायनार दिव्य चरित्र - भाग ५ - प्रतिदिन एक स्वर्ण मुद्रा

पुगलूर लौटकर, तिरुज्ञान संबन्धर, तिरुनावुक्करसु, मुरुग, नीलनक्क और सिरुतोण्ड जैसे महान भक्तों की संगति में, कई दिनों तक मुरुग नायनार के मठ में रहे । प्रभु ही सदैव भक्तों के समूहों के लिए संसार का केंद्र होते हैं। प्रतिदिन केवल भगवान के विषय में स्मरण और वार्तालाप करने से उनको परमानंद का अनुभव हुआ। भगवान के अन्य मंदिरों की यात्रा करने की इच्छा से, संबन्धर ने अप्पर के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। अप्पर के संगत के अवसर को संबन्धर व्यय जाने नहीं देना चाहते थे इसलिए यात्रा में वे अप्पर के साथ पैदल ही चल दिये। मुनि ने उनसे भगवान की इच्छानुसार मोती की शिविका में यात्रा करने का अनुरोध किया। उनके शब्दों को आदेश मानकर, उन्हे स्वीकार करते हुए, संबन्धर ने उनसे भक्तों के समूह के साथ आगे जाने का अनुरोध किया और वे उनके पीछे शिविका में चले। उस दिन से जब भी वे एक साथ होते थे, अप्पर पहले मंदिर में प्रवेश करते थे और संबन्धर पालकी में पीछे आते थे। वे तिरुवंबर में सर्वशक्तिमान के मंदिर गए। माणिक के समान दिव्य शब्दों में देवारम गाते हुए वे तिरुकडवूर पहुँचे जहाँ भगवान ने स्वयं मृत्यु को परास्थ किया था। वहां उन्होंने कुंगुलिय कलय नायनार की उत्कृष्ट निस्वार्थ सेवा का आनंद लिया। उनके मठ में रहकर, उन्होंने कडवूर विरट्टम और कडवूर मयानम में भगवान की स्तुति की। दोनों ने समीप तिरुवाक्कूर, मीयचूर और पाम्पुरनगर में भक्तों के दयालु भगवान की प्रेम से भरे हृदयों से स्तुति की। वे तिरुवीलिमिललै पहुंचे और वहां भक्तों ने उनका भव्य स्वागत किया। तिरुवीलिमिललै में कमल-नयन महाविष्णु को आशीर्वाद देने वाले प्रभु को नमन करते हुए, उन्होंने कई दिव्य, लयबद्ध, मधुर, सार्थक और प्रेरक देवारम गाए। वहां रहते समय उन्होंने पेनु पेरुन्तुरै और समीप के अन्य स्थानों पर भी भगवान त्रियंबक के मंदिरों के दर्शन किये।


एक दिन, सीरकाली के भक्त आए और भगवान के पुत्र से उनके साथ सीरकाली आने का अनुरोध किया। संबन्धर ने उनसे कहा कि वे भगवान तिरुतोणियप्पर के दर्शन के लिए उनके साथ आने से पूर्व तिरुवीलिमिललै के भगवान की अनुमति लेंगे। उस रात भगवान तिरुतोणियप्पर संबन्धर के स्वप्न में प्रकट हुए और उनसे कहा कि वे सीरकाली के तिरुतोणियप्पर के रूप में ही तिरुवीलिमिललै मंदिर के गोपुर में प्रकट होंगे। उस सुखद स्वप्न से जागते हुए, वे विलिमिललै मंदिर में तिरुतोणियप्पर के रूप को देखने के लिए मंदिर में गए और उन्होंने उस दर्शन के आनंद का वर्णन करते हुए एक सुंदर देवारम गाया। तद्पश्चात अपने द्वारा देखे गए अद्भुत दृश्य का वर्णन करते हुए, संबन्धर ने सीरकाली के वैदिक ब्राह्मणों से उनके बिना लौटने के लिए कहा क्योंकि यह भगवान की कृपा थी जिसने उन्हें अन्य निवासों के दर्शन करने का निर्देश दिया था।

 

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एक समय, भूमि में भयंकर आकाल पड़ा, नदियाँ सूख गईं, खेत रिक्त हो गए, आकाश में मेघ भी नहीं थे और लोग भूखे मर रहे थे। भगवान की भक्ति में विलीन दोनों संत सदैव प्रसन्न थे, किन्तु अन्य भक्तों के समक्ष बाधाओं से चिंतित होकर, उन्होंने भगवान से प्रार्थना की। दोनों के स्वप्नों में प्रभु ने प्रकट होकर कहा कि यद्यपि वे प्रकृति की पीड़ाओं से परे थें, तदापि अन्य भक्तों की लिए वे मंदिर के मंच पर प्रत्येक दिन प्रत्येक के लिए एक स्वर्ण मुद्रा रखेंगे। प्रभु की कृपा की प्रशंसा करते हुए, उन्हें मंच के पूर्वी और पश्चिमी मूल में प्रत्येक दिन एक स्वर्ण मुद्रा मिलती थी। भगवान के निस्वार्थ सेवकों ने भगवान के सभी भक्तों के लिए प्रतिदिन अपने मठों में भोज की घोषणा की। इन भक्तों के लिए भयानक अकाल दूर हो गया। अपनी अद्भुत सेवा और भक्ति से भूख के कठिन रोग को दूर करने के उन दिनों में, संबन्धर ने पाया कि अप्पर के मठ में भोजन पहले और उत्तम ढंग से परोसा जा रहा था। उन्होंने अपने रसोइयों से पूछा कि उनके मठ में समय अधिक क्यों लग रहा था। रसोइयों ने बताया कि अप्पर को जो स्वर्ण मुद्रा मिल रही थी, उसे सुवर्णकार तुरंत स्वीकार कर लेते थे, जबकि उनकी मुद्रा शुद्धता जांच के पश्चात ही स्वीकार किया जा रहा था और इसलिए समय अधिक लग रहा था। महान संत ने सोचा कि यह श्रद्धेय मुनि अप्पर की सत्यनिष्ठ सेवा के कारण है और उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की कि उन्हें दोषरहित मुद्रा प्राप्त हों। तब से प्रभु ने उनकी विनम्र प्रार्थना के लिए उन्हे भी निष्कलंक स्वर्ण मुद्राओं का आशीर्वाद दिया। दो उदार नायनमारों ने उस नगर में अपनी अद्वितीय सेवा तब तक निरंतर रखी जब तक कि वर्षा ने भूमि को पुनः हरा-भरा बना दिया। इसके पश्चात उन्होंने अपनी तीर्थयात्रा को आगे बढ़ाया और तिरुवाञ्चियम, तलयालंकाडु, पेरुवेलूर, सात्तङ्कुडी, तिरुक्करवीरम, विलमर, तिरुवारूर, तिरुक्करायिल, तेवूर, तिरुनेल्लिका, कैचिन्नम, तेङ्कूर, तिरुक्कोल्लिकाडु, कोट्टूर, वेन्तुरै, तण्डलै नीलनेरी, तिरुक्कलर और कई अन्य मंदिरों में भगवान के दर्शन किए। 


दोनों संत वेद-प्रशंसित भगवान के तिरुमरैकाडु (वेदारण्य) स्थल पहुंचे। अपने नगर में दो "सूर्यों" के आगमन के विषय में सुनकर, लोग ने अपनी अज्ञानता के अंधकार को दूर करने के लिए तत्पर होते हुए नगर को दीपों और पुष्पों से सजाया। हार्दिक स्वागत के मध्य, दोनों संत पाशुपातास्त्र के स्वामी के मंदिर गए। उन्होंने सुना कि मंदिर के मुख्य द्वार तब से बंद हैं जब से वेदों ने वहाँ स्वयं भगवान की पूजा की थी। नियमित पूजा और दर्शन के लिए आने वाले भक्तों के लिए एक छोटे द्वार का उपयोग किया जा रहा था। संबन्धर ने मुख्य द्वार खोलने के लिए अप्पर से एक देवारम गाने का अनुरोध किया। जैसे ही अप्पर ने ग्यारहवाँ छंद गाया, आश्चर्य चकित भक्तों के सागर के लिए द्वार खुल गया। भगवान की महानता की प्रशंसा करते हुए वे उस महान आश्चर्य के दर्शन करने गए जो भक्तों के हृदय के अंतरतम स्थान में विराजमान है। उन्होंने भूमि पर गिरकर उत्साह के साथ भगवान को साष्टांग किया। बाहर आने पर, अप्पर ने बाल संत से द्वार पुनः बंद करने के लिए देवारम गाने का अनुरोध किया। जैसे ही संबन्धर ने एक छंद गाया, द्वार बंद हो गया। भक्तों के समुद्र ने नियमित पूजा एवं दर्शन के लिए मुख्य द्वार खोलने वाले संतों का आभार प्रकट किया। इन महान संतों के छंदों से न केवल द्वार, अपितु बंद अज्ञानी मन भी भगवान शिव के प्रकाश के लिए खुल जाते हैं! जिन पर प्रभु की अपार कृपा हो ऐसे महान भक्तों के लिए क्या संभव नहीं है? उस रात तिरुनावुक्करसर के स्वप्न में भगवान ने उन्हें तिरुवायमूर आने के लिए कहा। उत्साहित होकर, ताण्डक (कविता निर्माण का प्रकार) के राजा ने भगवान की आज्ञा का पालन किया। यह पता चलने पर कि अप्पर तिरुवायमूर गया है, संबन्धर भी वहां गये। भगवान ने उमा सहित अपने नृत्य के दर्शन देकर उन्हें आशीर्वाद दिया। दोनों भक्तों ने तिरुवायमूर के मंदिर में शिव और शक्ति की पूजा की और तिरुमरैकाडु लौट आए।


जब भक्ति पंथ के दो उत्प्रेरक तिरुमरैकाडु में थे, तब पाण्ड्यों के प्राचीन दक्षिणी साम्राज्य शिव भक्ति के मार्ग से भटक रहा था और नास्तिक दर्शनों में विलुप्त हो रहा था। जैन धर्म ने अपने स्वार्थ-पूर्ण दर्शन से राज्य और लोगों के मन को आक्रांत कर लिया था। वैदिक सिद्धांत क्षीण हो गये और राजा स्वयं भ्रम में पड़े थे। स्त्रियों में रत्न, रानी मंगैयर्करसियार और साहसी मंत्री कुलचिरैयार को छोड़कर, बहुत कम थे जो शैवम के सच्चे मार्ग का अनुसरण करते थे। राजा और राज्य के विषय में चिंतित, दोनों शुभचिंतकों ने सूर्य, चंद्रमा और अग्नि नेत्रों वाले भगवान त्रिलोचन से बहुत प्रार्थना की। प्रभु की कृपा से, शैवम के प्रकाशस्तंभ - तिरुज्ञान संबन्ध नायनार उनके राज्य सीमा के पास, तिरुमरैकाडु में ही थे। सर्वशक्तिमान के प्रति आभार प्रकट करते हुए, उन्होंने बाल संत के पास कुछ दूत भेजे। संत ने दूतों का उत्सुकता से स्वागत करते हुए पाण्ड्य साम्राज्य के दोनों भक्तों की कुशलक्षेम पूछी। दूतों ने उनकी कुशलता के विषय के साथ-साथ मिथ्यावादी धर्मों के घने मेघ के अंधकार में राज्य की पीड़ा भी बताई। उन्होंने दक्षिण के प्राचीन तमिल साम्राज्य को बचाने के लिए संबन्धर से प्रार्थना की। भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद युवा संत ने तिरुनावुक्करसर को मंगैयर्करसियार और कुलचिरैयार के संदेश के बारे में सूचित किया। अप्पर उन्हे जाने देने के लिए तत्पर नहीं थे। वे जैनों के क्रूर एवं षडयंत्रकारी स्वभाव को जानते थे। इसके अतिरिक्त, ग्रह अनुकूल नहीं थे और शकुन अशुभ थे। संबन्धर ने "वेयूरु तोली" देवारम के रूप में उन्हें आश्वस्त किया कि पार्वती-पति पर निर्भर सेवकों के लिए कोई अशुभ शकुन नहीं हो सकता है। अप्पर ने उन्हें जैनों द्वारा रची गई षड्यंत्रों के विषय में चेतावनी देने का बहुत प्रयास किया, किन्तु संबन्धर दृढ़ थे और उन्होंने हाथ जोड़कर आज्ञा ले ली। वे पवित्र पंचाक्षर पर ध्यान करते हुए आगे बढ़े। तिरुवगतियानपल्ली, कोडिकुलकर, कडिकुलम, तिरुविडुमबावनम और तिरुवुचातनम में भगवान के दर्शन कर, उन्होंने तिरुकोडुङ्कुन्रम में भगवान को प्रणाम करते हुए दक्षिण-पश्चिम की ओर यात्रा की। भोर के समय, उन्होंने मदुरै के मार्ग पर पाण्ड्य साम्राज्य के सीमा में प्रवेश किया। निश्चय ही सूर्य का आगमन धुंध और कोहरे के लिए अपशकुन ही है। जैन भिक्षुओं ने चारों ओर बुरे स्वप्न और अपशकुन देखे। वे अपने आने वाले दुर्भाग्य के लिए शोक मना रहे थे। उसी समय रानी और सत्यनिष्ठ मंत्री को शुभ संकेत दिखाई दिये। जब उन्होंने बाल संत के आगमन के विषय में सुना, तो वे सूर्योदय के समय प्रकाश की अपेक्षा में चहचहाते पक्षियों के समान अनुभव करने लगे। उन्होंने प्रभु के पुत्र के स्वागत करने का प्रबन्ध किया। 
 

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भाग ६ - भस्म की महिमा

 

गुरु पूजा : वैकासी / मूलम या वृषभ / मूला   

हर हर महादेव 

See also:  
1. तिरुनावुक्करसु (वागीश) नायनार 
2. मुरुग नायनार  
3. तिरुनीलनक्क नायनार  
4. Chiruththonda nayanar  
5. कुंगुलिय कलय नायनार  
6. Mangaiyarkkarasiyar  
5. कुलचिरै नायनार  

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 


 

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