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तिरुनावुक्करसु (वागीश) नायनार दिव्य चरित्र - भाग १ - एक महात्मा का जन्म – मरुणीक्कियार से तिरुनावुक्करसु

क्या कोई है जो उस महान ऋषि के असीम प्रेम और दृढ़ संकल्प से की गई निस्वार्थ सेवा में व्यतीत जीवन का वर्णन कर सकता है, जिन्हे स्वयं भगवान ने "जिह्वा/शब्दों के सम्राट" (तिरुनावुक्करसु) की उपाधि दी थी और जिन्हे “अप्पर” के नाम से उन महान भक्त तिरुज्ञानसंबंधर ने स्नेह से संबोधित किया था?

Thirunavukkarachu Nayanar - Part- I (Rise of the Sage)
उस महान बहन के साथ, जो एक माँ, बचावकर्ता और मार्गदर्शक थी!

तमिलगम के मध्य भाग में स्थित तिरुमुनैप्पाडी राज्य को दक्षिण पेन्ना (तेनपेन्नई) नदी को प्राकृतिक आशीर्वाद था, जो मिट्टी को उपजाऊ बनाती थी और प्रचुर मात्रा में जल भी उपलब्ध कराती थी। इस राज्य की महानता का वर्णन करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं जहां "सेवा के संत" तिरुनावुक्करसु और "भक्तों के श्रेष्ठ सेवक" सुंदरमूर्ति का जन्म हुआ था! उस राज्य के समृद्ध नगरों में तिरुवमुर एक था, जहाँ शैवम की मधुर सुगंध चारों ओर फैली हुई थी। हरियाली के वस्त्र से ढकी उस भूमि में, पुगलन और उनकी पत्नी माथिनि रहते थे, कृषि कार्य कर अपना जीवन यापन करते थे। उस धन्य दंपति ने वास्तव में धन के रूप में तिलकवती नाम की एक पुत्री को जन्म दिया। कुछ वर्षों के पश्चात उन्हें एक पुत्र हुआ – जो सूर्य के समान अपने प्रेम-पूर्ण मनमोहक शब्दों से लोगों के हृदयों से अज्ञानता के अंधकार को दूर करने आए थे - और उनका नाम मरुणीक्कियार (भ्रम को दूर करने वाला) रखा गया। वे मुंडन जैसे सभी संस्कारों के साथ बड़े हुए। उन्होंने उपयुक्त आयु में कला सीखना शुरू किया और निषकलंक शुक्लपक्ष के चंद्रमा के समान बड़े हुए।

जब तिलकवती बारह वर्ष की हो गईं, तो पल्लव राजा के सेना प्रमुख कलिप्पगै, तिलकवती से विवाह करना चाहते थे। कलिप्पगै उन भगवान के भक्त थे जो अपने रूप मे वामाङ्गी को धारण किए हुए थे।  दोनों परिवार इस संबंध से खुश थे और विवाह की तैयारियां शुरू हो गईं। उस समय पल्लव राजा के अनुरोध पर कलिप्पगै को उत्तर के राजा के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा। वे विवाह से पूर्व ही युद्ध क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर गये। इस बीच पुगलन अस्वस्थ पड़ गये और उनकी मृत्यु हो गई। माथिनि इस पीड़ा को सहन करने में असमर्थ थी और उनका भी देहांत हो गया। जब तक तिलकवती और मरुणीक्कियार को उनके बंधुओं ने सांत्वना दी, तब तक उन्हें संदेश मिला कि कलिप्पगै ने रणभूमि में वीरगति प्राप्त कर ली थी। विवाह के प्रस्ताव के समय ही तिलकवती ने उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था। वे अब उनके बिना नहीं रहना चाहती थी। 

मरुणीक्कियार अपनी बहन के चरणों मे गिर पड़े और रोते हुए बोले, “हमारे माता-पिता की मृत्यु के बाद भी मैं केवल इसलिए जीवित हूँ क्योंकि मैं आपको नमन कर सकता हूँ, यदि आपने भी मुझे इस संसार में अकेले छोड़ने का निर्णय लिया हैं तो मैं पहले मरना पसंद करूंगा।” दया से भरी उन कोमल हृदय स्त्री ने अपने भाई के प्रेम के लिए जीने का निश्चय कर लिया। उन्होंने सभी जीवित प्राणियों के प्रति करुणा के साथ संसार के सभी प्रलोभनों से दूर एक कठोर जीवन व्यतीत किया। मरुणीक्कियार ने दुःख से बाहर आने के प्रयास में स्वयं को दान कार्यों में व्यस्त कर लिया - सराय बनाना, जल आश्रय स्थापित करना और भूके लोगों के लिए भोजन का प्रबंध करना। उन्होंने जीवन की अनिश्चितता के बारे में सोचना प्रारंभ किया और विभिन्न धर्मों का विश्लेषण करना आरंभ किया। यह स्पष्ट है कि सत्य की प्राप्ति के लिए भगवान की कृपा होनी चाहिए, जैसे जल ग्रहण करने के लिए केवल पिपासा पर्याप्त नहीं है, जल का स्रोत भी होना चाहिए। चूँकि तब भगवान ने उन्हें सत्य नहीं दिखाया था, वे जैन धर्म की अहिंसा सिद्धांत से आकर्षित हुए, भले ही जैन दर्शन अधूरा और अव्यवहारिक था।

वे पाटलिपुत्रम (कडलूर) नामक के स्थान पर गये जो जैन संस्थाओं के लिए प्रसिद्ध था। उन्होंने उस धर्म के ग्रंथों को सरलता से सीखा और वहाँ के जैन उनके पांडित्य की प्रशंसा भी करते थे। पाटलिपुत्रम के जैनों ने उन्हें "धर्मासेन" की उपाधि से सम्मानित भी किया। दर्शनशास्त्र के शास्त्रार्थ में उन्होंने बौद्धों पर विजय प्राप्त की और जैन संघ ऐसे श्रेष्ठ विद्वान को पाकर प्रसन्न था। इस अवधि में तिलकवती सभी संबंधों से दूर, सभी प्राणियों के एकमात्र बंधु - भगवान शिव - के स्मरण में पवित्र स्थान तिरुवदिकै में एकांत जीवन व्यतीत कर रही थी। उन्होंने पूरे समर्पण के साथ प्रभु की सेवा की, जिन्होंने अशुद्धियों से भरे तीन नगरों को तिनके के समान जला दिया था। उस शुद्ध हृदय वाली स्त्री ने अपने छोटे भाई को अज्ञानता से मुक्ति दिलाने और उस पर अपनी कृपा करने के लिए भगवान से कई बार प्रार्थना की। मरुणीक्कियार के लिए वे मां से बढ़कर थीं। उन्होंने न केवल मरुणीक्कियार का पालन-पोषण किया अपितु उनके लिए दिन-रात प्रार्थना भी करती थी ताकि उन्हे इसी जीवन में सत्य का अनुभव हो सके। इस प्रकार वे उनकी गुरु और मार्गदर्शक भी बन गईं। ब्रह्मांड के ज्योति, शिव, उन महान स्त्री के स्वप्न में प्रकट हुए और उन्हे आशीर्वाद दिया। उन्होंने तिलकवती से कहा कि वे मरुणीक्कियार को, जिन्होंने पिछले जन्मों में उन तक पहुँचने के लिए कई तपस्याएँ की थीं, सूलै(भयानक उदर पीड़ा) रोग देकर उचित मार्ग पर लाएँगे।

जैसे एक माँ जो अपने बच्चे को दंड देने के लिए नहीं अपितु सुधारने के लिए डांटती है, वैसे ही भगवान ने उनको उदर में सूलै का असहनीय पीड़ा दिया था। धर्मसेन उस भयानक पीड़ा को सहन न कर पाने के कारण भूमि पर लोटकर चिल्लाने लगे। पृथ्वी पर कोई भी औषधि इसे कम करने के लिए उपयोगी नहीं थी क्योंकि इसके लिए महादेव नामक औषधि की ही आवश्यकता थी। रोग की गंभीरता से भयभीत होकर, मुक्ति पाने के नाम पर स्वयं को यातना देने वाले जैनों ने उन सभी मंत्रों से, जो वे जानते थे, मंत्रित जल उन्हें दिया। पीड़ा कम होने के स्थान पर और बढ़ गई। फिर जैनों धर्मसेन  के शरीर पर मोर पंख का प्रयोग किया किन्तु इससे उनकी चीख नहीं रुकी। भयभीत और भ्रमित होकर जैनों ने अपने प्रयास छोड़ दिये। बढ़ती पीड़ा और सहयता करने वाला कोई भी न होने के कारण, मरुणीक्कियार को अपनी प्रिय बहन याद आई। उन्होंने तिलकवती को अपनी पीड़ा के विषय मे बताने के लिए एक दूत को भेजा। अपने भाई के स्थिति पर दया तो आ रही थी, किन्तु यही अवसर था उन्हे उत्कृष्ट रीति से ठीक करने का और सीधे मार्ग पर पुनः ले आने का।  इसलिए तिलकवती ने जाने से मना कर दिया और उस दूत द्वारा यह संदेश भेजा कि वे जैनों के यहाँ नहीं आएगीं।

ईश्वर की कृपा थी कि मरुणीक्कियार इस निर्णय पर पहुंचे कि वे जैनों का संघ छोड़ देंगे और सवयं को अपनी बहन के चरणों में समर्पित कर देंगे। उन्होंने जैन धर्म के सभी प्रतीकों को वहीं त्याग दिया और तिरुवदिकै की ओर प्रस्थान किया। उस रात बाहर गहन अंधेरा था, मानो आने वाले आलोकिक ​​सवेरा की ओर संकेत कर रहा था। मरुणीक्कियार ने श्वेत वस्त्र धारण किए और तिलकवती की कुटिया में पहुंचे। कटे पेड़ की भाँति अपने उदर ही पीड़ा सहते हुए वे अपनी बहन के चरणों में गिर पड़े। भगवान शिव की महिमा की प्रशंसा करते हुए, तिलकवती ने उन्हें उठाया और कहा, "यह उस जटाधारी भगवान की कृपा है। जो आत्मसमर्पण के भाव से उनकी शरण लेते हैं और उनकी सेवा करते हैं, वे उन लोगों के कष्टजनक बंधनों को तोड़ देते हैं।" उस महान स्त्री ने उन्हें तिरुवदिकै में अपने घर में प्रवेश से पूर्व, पवित्र पंचाक्षर का उच्चारण करते हुए पवित्र भस्म दी। इस संसार की सारी संपत्ति के स्वामी, भगवान, की पवित्र भस्म को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए, वे धन्य हो गए।

अंदर और बाहर का अंधेरा मिटने के बाद, भोर से पूर्व तिलकवती ने मरुणीक्कियार को तिरुपल्ली-एलुची (मंदिर में पहली पूजा - सुप्रभात) में भाग लेने के लिए मंदिर ले गई। भगवान को प्रणाम करते हुए, अत्यधिक जल के साथ बहते हुए झरने के समान उनकी भावनाओं को उन्होंने एक गीत (देवारम) का रूप दिया। अंततः वे उनके पास आ ही गये, जो सभी औषधियों के स्वामी है - बंधन और जन्म रूपी रोगों के लिए उपयोगी भी। उन्होंने "कूट्रायिनवारु विलक्ककिलिर" देवारम गाया, जिसे सुनकर पाषाण हृदय वाला व्यक्ति भी पिघल जाएगा। भक्ति से शीघ्र प्रसन्न होने वाले भगवान ने उनके रोग को तुरंत ठीक कर दी। पुलकित होकर, भगवान को उन्होंने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की, जिन्होंने न केवल उन्हे शारीरिक पीड़ा से मुक्त किया अपितु अज्ञानता के अंधेरे से भी बचाया था। प्रभु की कृपा से एक ध्वनि सुनाई दी, "आपने उत्कृष्ट अर्थ वाले मधुर शब्दों से यह सुंदर देवारम गाया हैं, इसलिए आपका नाम संसार भर में नावुक्करसु (जिह्वा/शब्दों के सम्राट - वागीश ) के रूप में प्रसिद्ध होगा।"

पाश से बंधे सभी प्राणी अज्ञान, भ्रम और पूर्व कर्मों के प्रभाव के अधीन हैं। इसके अपवाद प्रायः बहुत कम ही है। यह महान लोगों का गुण है, कि एक बार जब उन्हें इस बंधन से बाहर आने का अवसर मिलता है, तो वे शीघ्र ही ज्ञान के शिखर पर पहुंच जाते हैं और इस अंधकार में डूबे संसार के लिए पूर्णिमा के चंद्रमा के समान सूर्य के प्रकाश (ईश्वर रूपी) को पूर्ण रूप से प्रतिबिंबित करते हैं। केवल एक देवारम के साथ जब भगवान ने उन्हें “शब्दों का सम्राट” की उपाधि दी, तब उनके मन में कितना बड़ा परिवर्तन आया होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। उन लोगों के लिए इसका उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है जिन्होंने इस अद्वितीय देवारम "कूट्रायिनावारु" को पढ़ा है, की भगवान के प्रति उनके प्रेम और उनकी भक्ति कितनी श्रेष्ठ है। भक्तगण उनके देवारम में व्यक्त भक्ति के अनूठे शब्दों के लिए उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। महान है वे प्रभु जिन्होंने हमें पवित्र वेद दिये! महान हैं उनके भक्त तिरुनावुक्करसु, जो अपने हृदयगत देवारम से भगवान को हमारे पास लाते हैं!

तिरुनावुक्करसु (वागीश) नायनार दिव्य चरित्र - भाग २ - सत्य की स्थापना  – समुद्र में प्लावित महासागर 

गुरु पूजा : चितिरै / सदयम् या मेष / शतभिषा   

हर हर महादेव 

See also:
1. thirunyanachampandha nayanar
2. chundharar 
3. Thilakavathiyar 

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 


 

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