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तिरुज्ञान संबन्धर नायनार दिव्य चरित्र - भाग ६ - भस्म की महिमा

पाण्ड्य साम्राज्य की रानी मंगैयर्करसियार नास्तिक धर्मों के कंटकों के मध्य पाटल पुष्प के समान पशुपति के सुगंध विस्तृत करती थी। मंत्री कुलचिरैयार ने उनको तिरुज्ञान संबन्धर के आगमन के विषय में सूचित किया। रानी ने आदेश दिया कि वे तुरंत जाकर उन भेषज तिरुज्ञान संबन्धर का नमन और स्वागत करें, जो तमिल भूमि के उस भाग से मिथ्या मतों के कर्करोग से मुक्ति दिलाने आए थे। उस राजसी आदेश के साथ, प्रगल्भ मंत्री, राजा और राज्य के उत्थान के एकमात्र उद्देश्य से उन बाल संत को प्रणाम और स्वागत करने के लिए मदुरै नगर की सीमा के बाहर गये। तिरुवालवाय (मदुरै) के भगवान की नियमित पूजा का कारण देकर रानी संत से मिलने मंदिर में गयी। भस्म से भूषित, शैवम के दीपस्तंभ संबन्धर, भक्तों के समूह के मध्य चमक रहे थे । वाद्य यंत्रों द्वारा घोषित संबन्धर के आगमन को सुनकर, दृढ़ आस्था के साथ मंत्री ने अपने उत्तम भाग्य से प्रसन्न, ध्वनि की दिशा में भूमि पर साष्टांग किया। प्रेम से भरे हृदय के साथ वे आगे बढ़े और संत की पालकी के सम्मुख साष्टांग प्रणाम किया। यह जानकर कि राज्य के मंत्री प्रणाम कर रहे थे, बाल संत उन भक्त को आलिङ्गन करने के लिए अपनी शिविका से बाहर निकले, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी शैवम के दीपक को जलाए रखा था। मदुरै के दुर्ग-सुरक्षित नगर को देखकर, संत ने उनसे अर्धचंद्राभूषित सुंदर भगवान के मंदिर का स्थल पूछा।  मंत्री ने कूडल के भगवान के मंदिर की गगनचुम्बी गोपुर की ओर संकेत किया। वहाँ साष्टांग प्रणाम करके बाल कवि ने रानी और मंत्री की सच्ची भक्ति की प्रशंसा करते हुए देवारम गाया। उन्होंने आलवाय शिव के मंदिर में प्रवेश किया। प्रथम तमिल संगम (तमिल विद्वानों और कवियों की एक सभा) के पीठासीन कवि (शिव) के मंदिर में, शैव कवि ने भगवान को प्रणाम करते हुए "नीलमा मिडटरु" देवारम गाया। बाहर निकलते समय उन्हें अद्वितीय भक्त मंगैयर्करसियार के दर्शन हुए। वे उन महान संत के चरणों में गिर पड़ी और कंपित शब्दों में अपने और उन्होंने अपने राज्य के भाग्य पर आश्चर्य व्यक्त किया। शैवम के प्रकाशस्तंभ ने यह कहकर प्रीती व्यक्त की कि वे उन अद्भुत स्त्री के  दर्शन के लिए आए थें, जिन्होंने अन्य मतों के अत्याचार के मध्य भी निष्ठा से ईश्वर की सेवा का मार्ग अपनाया था। तद्पश्चात, कुलचिरैयार ने एक भवन में अन्य भक्तों के साथ संबन्धर के रहने का प्रबन्ध किया। उस रात व्याकुल जैन प्रचारकों ने जैन धर्म अनुयायी, राजा नेडुमारन, से भेंट की । जैन मत को कुचलने के लिए जटाजूट भगवान के भक्त संबन्धर के आगमन के विषय में उन्होंने राजा को सूचित किया। उन्होंने भ्रमित राजा को उत्तेजित और पथभ्रष्ट किया कि वे संबन्धर के भवन को मंत्रों द्वारा आग लगाकर उनकी हत्या कर दें। इससे राजा क्षुब्ध हुए। रानी द्वारा चिंता के कारण पूछने पर राजा ने उन्हे केवल दार्शनिक विवाद के लिए संबन्धर के आगमन के विषय में बताया। रानी ने उन्हे विवाद में जो दर्शन स्थापित हो उसी को स्वीकार करने का परामर्श दिया और मन ही मन बाल संत के आगमन से प्रसन्न होकर मौन धारण कर चली गई।


इस अन्तर में, मंत्री, कुलचिरैयार ने जैनों के द्वारा बाल संत को क्षति पहुँचने के लिए मतान्ध और कपटी चेष्टाओं के विषय में अपनी चिंता व्यक्त करने के लिए रानी से भेंट की। यदि संत के साथ कोई अनर्थ हुआ तो दोनों महान भक्तों ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया। सार्थक चर्चाओं के माध्यम से सत्य अन्वेषण के मार्ग को त्याग प्रतिद्वंद्वी को मिटाने के उद्देश्य से, अपने मत के सबसे दयालु होने पर गर्व करने वाले, जैनों ने अपने मंत्रों का उपयोग करके भगवान के पुत्र के भवन को आग लगाने की चेष्टा की। क्या कोई मंत्र है जो उस निवास को जला सकता है जहां सभी मंत्रों में श्रेष्ठ, पवित्र पंचाक्षर का जाप किया जा रहा है? उनके मंत्र विफल हो गए। राजा को जैन मंत्रों की विफलता के विषय में ज्ञात होने पर जैन मत से उनके विश्वास उठ जाने की संभावना से डरकर, उन दुष्टों ने धूर्तता से, अंधेरे में, संत के निवास में आग लगा दी। भवन के भक्तों ने शीघ्र आग शांत किया और  संबन्धर को सूचित किया। बाल भक्त, भवन में वास करने वाले अन्य भक्तों के लिए आग के संकट से व्यथित थे और राजा के व्यवहार से खिन्न थे जो जन-रक्षा करने में असमर्थ रहे। भगवान रुद्र के पवित्र चरणों को मन में स्मरण करते हुए, उन्होंने "चेय्यन" देवारम गाया और प्रभु से अनुरोध किया कि आग का ऊष्ण धीरे-धीरे पाण्ड्य राजा के देह में प्रवेश कर जाए। उन्होंने धीरे-धीरे का केवल इसलिए उल्लेख किया क्योंकि राजा मंगैयर्करसियार के पति थे, कुलचिरैयार द्वारा पूजनीय थे और स्वयं शैवम के सत्य को स्वीकार करने के देहली पर थे। 

 


दुष्कर्म की आग, ऊष्ण में परिवर्तित हो गई और राजा के शरीर को पीड़ा देने लगी। अगले दिन प्रातः, रानी और कुलचिरैयार जैनों के घृणित कृत्य के विषय में सुनकर भयभीत हो गए, किन्तु जब उन्हें पता चला कि संबन्धर और अन्य भक्त सुरक्षित थे, तो उन्हें शांति मिली। जब वे जैनों के अधम कृत्य से क्षुब्ध थे, तब उन्हें राजा को अपने वश में करने वाले विचित्र ज्वर के विषय में ज्ञात हुआ। पतिव्रता रानी और स्वामिभक्त मंत्री तीव्रता से राजा के निकट पहुंचे। प्रसिद्ध वैद्यों के सर्वोत्तम औषधियाँ राजा के पीड़ा को कम करने में विफल रहीं। जैनों को भी तब आश्चर्य हुआ जब उनके मोर पंख राजा के शरीर पर पड़ते ही जल गई। उन्होंने अपने मंत्र बोलते जल राजा पर छिड़का। किन्तु राजा की पीड़ा और बढ़ गई, उन्हे ऐसे लगा जैसे दहकती आग में कोई तेल डाल रहा हो। राजा ने क्रुद्ध होकर उन्हें चले जाने का आदेश दिया। 


 

Thirugnana Sambandhar curing the disease of Pandya king

चिंतित रानी और मंत्री ने अनुमान लगाया कि राजा की पीड़ा संत तिरुज्ञान संबन्धर के विरुद्ध किए गए अपराध का परिणाम ही था। वे विनम्रतापूर्वक राजा के पास गए और उनसे कहा कि सीरकाली  के संत न केवल उस रोग को अपितु इस जन्म के कष्टों का भी निवारण कर सकते हैं। रोगमुक्त होने के लिए व्याकुल, राजा ने अपने हितैषियों के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और घोषणा की कि वे उस दर्शन का अनुसरण करेंगे जिससे उनके भयानक रोग का उपचार होगा। यह सुनकर दोनों हितचिंतक उत्साह और आशा के साथ चले, मंत्री आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे रानी शिविका में बैठकर संत के निवास की ओर चल रहीं थीं। दोनों दयालु भक्त उनके चरणों में गिर पड़े और उनके विरुद्ध किए गए पापपूर्ण कृत्य के लिए उनसे क्षमा माँगने लगे। करुणा से भरकर संबन्धर ने उनकी कुशलक्षेम पूछी। उन्होंने उसे पाप के परिणाम के विषय में बताया जो राजा के लिए एक पीड़ादायक ज्वार रोग के रूप में प्रकट हुआ। उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे आयें और राजा तथा भूमि को जैनों से मुक्त करें। जाने से पूर्व, सर्वशक्तिमान के आशीर्वाद के लिए, संबन्धर ने पूजा की और "काट्टुमावुरी" और "वेदवेल्वी" गाया। उन्होंने प्रभु से जगत को भगवत नाम से व्याप्त करने के लिए अनुरोध किया। उन्होंने सभी प्राणियों के ज्ञान के लिए प्रभु का आह्वान किया। दृढ़ निश्चयी, अनुशासित, समर्पित, प्रतिभाशाली और निस्वार्थ वे कनिष्ठ बालक भक्तों के विचारों में सदैव ऊँचे रहेंगें।


मंत्री के दिखाए पथ पर, रानी पीछे चलती हुई, संबन्धर ने मोती की शिविका में राजा के महल तक यात्रा की। महल में पहुँचकर, कुलचिरैयार, राजा के समक्ष बाल संत के आगमन की घोषणा करने के लिए, आगे बढ़े। राजा ने सम्मानपूर्ण, संत के लिए अपने शीर्ष के समीप एक आसान का प्रबन्ध किया और मंत्री से उन्हें भीतर लाने के लिए कहा। जैन अपने दर्शन के अस्तित्व के बारे में चिंतित थे, उन्होंने राजा को यह घोषणा करने के लिए मनाने की कोशिश की कि जैन उन्हें ठीक करने में सक्षम हैं। यदि संबन्धर सफल हो गए, तो उनका धर्म संकट में था। राजा ने न्याय के विरुद्ध जाने से अस्वीकार कर दिया। जब जैन उनके इस उत्तर से चिंतित थे, तब भूमि की रक्षा करने के लिए आये संत भीतर आ गये। राजा बालक संत को देखकर धीरे-धीरे अपने भ्रम से बाहर निकले और उन्होंने हाथ जोड़कर आसान ग्रहण करने का अनुरोध किया। राजा ने उस नगर के विषय में पूछा जहाँ बाल संत रहते थे। संबन्धर ने अपने नगर सीरकाली के बारह नाम बताते हुए एक देवारम गाया। सुसज्जित आसन पर विराजमान संबन्धर को सहन करने में असमर्थ, जैनों ने अपने डर को छिपाते हुए उन्हे घेर लिया और क्रोधित उनपर चिल्लाने लगे। अविचलित संबन्धर ने उनसे सत्य को अपने मतानुसार स्पष्ट करने कहा। पराजय के भय से वे प्रलाप करने लगे। यह देखकर, रानी ने राजा से हस्तक्षेप करने के लिए अनुरोध किया क्योंकि संबन्धर केवल एक बालक थे और जैनों की संख्या भी अधिक थी। राजा ने उन्हे रोखकर ये घोषणा की कि दोनों पक्षों को परस्पर विवाद करने की जगह, उनकी पीड़ा के उपचार करके अपने मत की श्रेष्ठता को प्रामाणित करना चाहिए। बाल संत ने व्याकुल रानी को आश्वासित किया कि यद्यपि वे आयु में बालक थे, तदापि वे जैनों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए सज्ज थे क्योंकि स्वयं तिरुवालवाय के भगवान उनके साथ थे। तब जैनों ने घमंड के साथ कहा कि वे कुछ ही क्षणों में राजा के शरीर के वाम भाग को ठीक कर देंगे और संबन्धर को दक्षिण भाग को रोगमुक्त करने की चुनौती दी। जैन अपने मंत्रों को राजा के शरीर के बाईं ओर पंख से निर्देशित करने लगे। किन्तु उनकी वेदना कम होने की जगह और बढ़ गई। राजा ने तिरुज्ञान संबन्धर की ओर आशा के साथ देखा। इसे राजा का अनुरोध समझकर, संत ने सभी रोगों की औषधि, भगवान, की स्तुति की और सर्व-पवित्र भस्म का शरीर के दाहिने भाग पर लेप लगाया। तुरंत, राजा के शरीर के दाहिने भाग में शीत का विस्तार हुआ, जबकि वाम भाग तप रहा था। राजा को मुक्ति का आनंद और नरक की पीड़ा, दोनों का, एक साथ अनुभव हुआ। उनके शरीर के दाहिनी भाग में मानो अमृत और वाम भाग में विष बह रहा था। उन्होंने घोषणा की कि जैनों को निष्पक्ष रूप से हाराया गया था और उन्हें उनकी दृष्टि से दूर होने का आदेश दिया। दिव्य मार्ग के देहली पर खड़े विनम्र राजा ने अद्भुत भगवान शिव के विनम्र सेवक से वाम भाग का भी उपचार करके दया दिखाने का अनुरोध किया। पुनः देवों के देव की स्तुति करते हुए शैव रत्न ने बायीं ओर को भी पवित्र भस्म का लेप लगाया। इससे राजा पूर्ण रूप से रोगमुक्त हो गए। रानी और मंत्री बाल संत के चरणों में गिर पड़े। अपने सिर पर हाथ जोड़कर, राजा ने न केवल शरीर की पीड़ा से, अपितु जैनों द्वारा भ्रमित मन से भी उनकी रक्षा करने के लिए संबन्धर को प्रणाम किया और उनकी प्रशंसा की। अपरिमेय प्रभु की महिमा उस प्राचीन तमिल भूमि में फिर से प्रकाशमान हुई और शैवम के लिए एक भव्य भविष्य का मार्ग प्रशस्त हुआ।

 

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गुरु पूजा : वैकासी / मूलम या वृषभ / मूला   

हर हर महादेव 

See also:  
1. Mangaiyarkkarasiyar  
2. कुलचिरै नायनार  

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 


 

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