चेर साम्राज्य के शांतिपूर्ण और समृद्ध शासन काल में एक दिन, राजा ने भगवान की अपनी दैनिक पूजा की। अपने सच्चे भक्त कलरिट्ररिवार को प्रतिदिन अपने नूपुर की ध्वनि से आशीर्वाद देने वाले प्रभु ने उस दिन ध्वनि नही दी। नायनार का हृदय बैठ गया। यद्यपि पूजा दोषरहित थी तथापि निराश भक्त को लगा कि अनुष्ठान में कोई त्रुटि अवश्य हुई होगी और इसलिए उन्होंने वक्षस्थल विदारणे हेतु अपनी असी उठाई। सदैव अपने भक्तों की रक्षा के लिए तत्पर भगवान ने तुरंत अपनी मनोहर नूपुर से ध्वनि की। असी गिरा कर दंडवत करते हुए भक्त ने भगवान से विलंब का कारण पूछा। भगवान ने उन्हे बताया कि वे अपने भक्त वन्तोंडर के गीत में तल्लीन थे, जो उनके पवित्र नृत्य की प्रशंसा कर रहे थे। नायनार ने अपने भक्तों के लिए भगवान की कृपा की प्रशंसा की। तिलै में नटराज को नमस्कार करने और उनके महान भक्त वन्तोंडर से मिलने की तीव्र इच्छा उनके मन में विकसित हुई।
अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु राजा तिलै और आरूर की ओर चल पड़े। अपनी सेना और राजसभासदों से सीमा पर विदा लेकर वे एक छोटे से दल के साथ चोल राज्य की ओर गए। मार्ग में भगवान कपालीश्वर के भक्तों ने राजा का स्वागत किया और राजा ने अनेकों मंदिरों में ईश्वर के दर्शन किए। काविरी नदी के शीतल जल में स्नान करके वे तिलै पहुंचे। मंदिर के सात स्थर गोपुर के सामने शीर्ष झुकाकर उन्होंने कनक सभा को प्रणाम किया। वे ब्रह्मांड के सृष्टि हेतु नृत्य करते नटराज के दर्शन करने गए। अपने हृदय और इंद्रियों को भगवान पर केंद्रित करते हुए, उन्होंने उन महादेव की स्तुति की जिन्होंने जगत संरक्षण के लिए विष का सेवन किया और जगत कल्याण के लिए नृत्य रूपी अमृत वर्षा की। पर्जन्य से अधिक उदार राजा ने "पोनवन्नतु अंतादि" स्तुति के साथ अपने शब्दों की धारा से शिव का अभिषेक किया। भगवान ने अपनी प्रशंसा प्रकट करते हुए अपने नूपुर से ध्वनि किया। राजा बहुत समय तक उस पवित्र स्थान पर रहे।
तद्पश्चात शिव के सेवकों के सेवक - सुंदर मूर्ति नायनार से भेंट करने की लिप्सा ने नायनार को तिरुवारूर के मार्ग पर अग्रसर किया। संत तिरुज्ञान संबंधर के जन्म स्थान सीरकाली और मार्ग में कई मंदिरों में दर्शन करने के पश्चात वे शीतल हरे खेतों से परिवृत तिरुवारूर पहुंचे। उसी समय, सुंदरर नागै कारोणम में भगवान से रत्न और बहुमूल्य उपहार प्राप्त करके तिरुवारूर लौट आए थे। चेरमान के आगमन का समाचार सुनते ही सुंदरर उनका स्वागत करने के लिए आगे बढ़े। दोनों भक्तों ने एक-दूसरे से भेंट की और एक-दूसरे को प्रणाम किया। उनके हृदयों में सम्मान के साथ, उनके मध्य सच्ची मित्रता विकसित हो उठी और उनकी आत्माएं एक-दूसरे में अनुरक्त हों गईं। सुंदरर चेरमान को शिव मंदिर ले गए। देवाश्रय सभा में नमन करते हुए दोनों ने भगवान को प्रणाम करते हुए पवित्र मंदिर में प्रवेश किया। सुंदरर के घर पर चेरमान का परवैयार ने स्नेहपूर्वक स्वागत किया। आरूर के भक्त ने कलरिट्ररिवार नायनार के लिए एक भव्य भोज का आयोजन किया। राजा को संकोच हुआ, किन्तु सुंदरर ने उनसे अपनी सेवा स्वीकार करने का अनुरोध किया। इस मित्रता को देने वाले ईश्वर के पवित्र चरणों की स्तुति करते हुए, दोनों काव्य सम्राटों ने भोजन ग्रहण किया और अपने माथे पर पवित्र भस्म लगाकर इसका समापन किया। वे तिरुवारूर के भगवान को नमस्कार करते हुए कई दिनों तक साथ रहें।
सुंदरर मदुरै के प्राचीन मंदिर में पूजा करने के लिए उत्सुक थे। चेर राजा, उनसे पृथक होने के लिए उद्यत नहीं थे और वे भी मदुरै में शिव को नमन करने के लिए इच्छुक थे। मदुरै के सुंदरेश्वर ने ही पाण भद्रर के माध्यम से उन्हें संबोधित पत्र भेजा था। इसलिए उन्होंने सुंदरर के साथ जाने का निर्णय लिया। दो अद्भुत भक्तों ने कीलवेलूर, नागै कारोणम और अन्य मंदिरों में भगवान को प्रणाम किया। वे तिरुमरैक्काडु पहुँचे और मंदिर के द्वार पर अप्पर और संबंधर की स्तुति की, जिन्होंने अपने पवित्र देवारम से उस द्वार को क्रमशः खोला और बंद किया था। सुंदरर ने अपना "तिरुपाट्टु" गाया और चेर भक्त ने वेदों के आराध्य भगवान पर एक "अंतादि" गाया। अगतियानपल्ली और कोडी कुलगर में भगवान को नमन करते हुए वे पांड्य साम्राज्य पहुँचे।
तिरुपुत्तुर में भगवान की पूजा करते हुए, वे राजधानी मदुरै में प्रवेश कर गए। बड़े सम्मान के साथ, पांड्य राजा चेर राजा और तेजस्वी संत सुंदरर का स्वागत करने के लिए आगे आए। चोल साम्राज्य के राजा पांड्य राजा की पुत्री के विवाह संबंध में पहले से ही मदुरै में थे। तमिल भूमि के तीनों राजाओं के साथ, सुंदरर भगवान से प्रार्थना करने के लिए मदुरै के प्राचीन मंदिर में गए। चेर राजा ने भगवान द्वारा उन्हें संबोधित पत्र के लिए कृतज्ञता के साथ, एक पद्य में उनकी स्तुति गाई। पांड्य राजा ने चेर राजा और आरूर के प्रसिद्ध भक्त का अपने राजभवन में अथिति सत्कार किया। वन्तोंडर और तीनों राजाओं का एक-दूसरे के प्रति सम्मान था और तमिल भूमि में शांति रही। उन्होंने एक साथ मिलकर तिरुपूवनम, तिरुवापनूर, तिरुवेडकम और तिरुपरंकुन्रम में इस पूरे अस्तित्व के ईश्वर की पूजा की। मदुरै में रहते हुए उन्होंने कई बार आलवाय के प्रभु को प्रणाम किया। अन्य दो राजाओं से विदा लेकर, चेर राजा और शिव के मित्र ने पांड्य साम्राज्य के दक्षिण भाग की तीर्थयात्रा की। उन्होंने कुट्रालम, तिरुनेलवेली और रामेश्वरमसहित कई स्थानों पर भगवान की स्तुति की। रामेश्वरम से ही, उन्होंने श्रीलंका में केदीश्वरम के भगवान की स्तुति की। वे आगे तिरुसुलियल, कानप्पेर, तिरुपुनवायिल और विभिन्न मंदिरों में जटाधारी चंद्रचूड़ स्वामी के दर्शन करते हुए अंत में चोल राज्य लौट गए। पाम्बनी मानगर – पातालीश्वरम और निकट के मंदिरों में ईश्वर को प्रणाम करने के पश्चात, वे तिरुवारूर में शिव को प्रणाम करने के लिए शीघ्र पहुँच गए। चेर राजा, सुंदरर और परवैयार के आतिथ्य का आनंद लेते हुए कई दिनों तक वहाँ रहे।
चेर राजा ने अपने मित्र सुंदरर से चेर राज्य का भ्रमण करने का अनुरोध किया। अपनी पत्नी की सहमति प्राप्त करके आरूरर ने चेर राजा के साथ पश्चिम की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ की। उन्होंने तिरुकंडियूर में भगवान कपालीश्वर की स्तुति की और काविरी नदी उत्तरी तट पर स्थित तिरुवैयारु को देखा। चेरमान पेरुमाल तिरुवैयारु में भगवान की पूजा करने के इच्छुक थे। काविरी नदी में बाढ़ थी इसलिए उसे पार करने के लिए नावों का प्रयोग नहीं किया जा सकता था। सुंदरर ने अपना ध्यान भगवान पर केंद्रित करते हुए गाया और भगवान की कृपा से काविरी के बीच में एक सूखा, सिकत पथ प्रकट हुआ! वे तिरुवैयारु में पांच धाराओं के ईश्वर का आभार प्रकट करने के लिए उत्सुक थे और उस मार्ग पर चले। वे भगवान की पूजा करने के पश्चात उसी पथ से काविरी नदी दक्षिणी तट पर लौट आए। कई मंदिरों में भगवान की स्तुति करते हुए वे कोंगु नाडु से होते हुए चेर साम्राज्य में पहुंचे। अद्भुत राजा की धन्य प्रजा, शिव के मित्र और अपने प्रिय राजा का स्वागत करने के लिए बड़ी संख्या में आई। भक्तों की उस भीड़ के मध्य, दोनों मित्र कोडुङ्कोलूर पहुँचे।
राजमहल में ले जाने से पूर्व, राजा अपने प्रिय मित्र को अपने हृदय में नृत्य करते तिरुवंचैकलम के ईश्वर की पूजा करने के लिए ले गये। सुंदरर ने उस पवित्र मंदिर में भगवान की स्तुति में एक सुंदर देवारम गाया, जिसका आरंभ "मुडिप्पतु गंगै" से किया। मंदिर से बाहर आकर, राजा ने सुंदरर को राजसी हाथी पर बिठाकर उनके पीछे बैठकर चामर सेवा करते हुए उन्हे नगर भ्रमण कराया। लोगों ने चेरमान पेरुमान की विनम्रता और सेवा, दोनों की भक्ति और अद्भुत मित्रता की प्रशंसा की। वे राजमहल पहुँचे। विनम्र राजा ने सुंदरर को राजसिंहासन पर बैठाया और सुगंधित जल से उनके चरण सेवा करना चाहा। सवयं को आरूर के शिव के सेवकों का सेवक कहने वाले सुंदरर, चेर राजा की सेवा से चकित थे और शीघ्र अपने चरण पीछे लिए। किन्तु मना करने में असमर्थ, सुंदरर ने नायनार की सेवा स्वीकार की, उनके आतिथ्य का आनंद लिया और राजा द्वारा आयोजित भोज भी स्वीकार किया। सुंदरर लंबे समय तक राजा के साथ रहे। सुंदरर तिरुवारूर के ईश्वर के प्रति अपने अमिट प्रेम के कारण तिरुवारूर लौटने के लिए उत्सुक थे। राजा उनके वियोग को सहन नहीं कर पाए, इसलिए उनके साथ चलने को तत्पर थे, यहाँ तक कि उन्होंने अपना राज्य सुंदरर को ही समर्पित कर दिया। वे केवल आरूरर के चरणों में रहना चाहते थे और तिरुवारूर के भगवान को प्रणाम करना चाहते थे। किन्तु सुंदरर ने उन्हें राज्य को शांति और समृद्धि के मार्ग पर बनाए रखने के लिए वहीं रहने का परामर्श दिया। राजा ने उन्हें रत्नों और धन के विशाल ढेर के साथ विदा किया। सुंदरर तिरुवारूर लौट आए और विनम्र चेर राजा ने न्याय के साथ राज्य पर शासन किया।
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गुरु पूजा : आडी / स्वाती या कर्क / स्वाती
हर हर महादेव
See Also:
1. Thiruvilaiyadal Puranam - Thirumukang koduththa padalam