लंबे तीक्ष्ण दाँतों वाले विशाल हाथियों के लिए प्रसिद्ध केरल की भूमि में प्राचीन चेर राज्य स्थित था। राज्य की राजधानी कोडुंगोलूर नगर थी, जिसे तिरुवंचैकलम के शिव मंदिर ने पवित्र बनाया। सुंदर भूभाग को जल से सींचते हुए समुद्र की गर्जना के ऊपर विभिन्न संगीत वाद्ययंत्रों की ध्वनि से वातावरण गूंजती रहती थी। नगर भर के मठ पूरे देश में शैव धर्म के सुगंध को विस्तारित करते थे। चेरों की उस प्राचीन राजधानी में, राजपरिवार और इस संसार की तप से, पेरुमाकोदैयार का जन्म हुआ। वे शैव धर्म को पोषित करने हेतु ही बड़े हुए। उनका एकमात्र लक्ष्य भगवान नटराज के नृत्य करते चरणों के विचारों में लीन होना था। उन्होंने विरासत में प्राप्त सिंहासन पर भी अधिकार नही जमाया, अपितु अपने दिन केवल तिरुवंचैकलम के भगवान की सेवा में बिताए। भोर के समय सूर्य के समान उदय होकर, अपने ध्यान को सर्वोच्च पर केंद्रित कर, वे जल स्नान के पश्चात भस्म स्नान करते थे। फिर भगवान के लिए सुंदर माला बनाने के लिए पुष्प और भगवान का अभिषेक के लिए अपने हृदय के समान स्वच्छ जल लाते थे। तद्पश्चात वे मंदिर को स्वच्छ करते, परिसर धोते, सभी आवश्यक सेवाएं करते और अपने प्रभु की कीर्ति गाते। इन कार्यों में पूर्ण रूप से मग्न होकर, वे भक्तों के प्रेम के पुष्पों से आच्छादित चरणों वाले परमेश्वर की सेवा करते थे।
एक दिन चेर भूमि के पुण्यशाली राजा चेनकोर पोरायन ने सिंहासन त्यागकर वनप्रस्त होने का निर्णय लिया। निष्ठावान मंत्रियों ने सबसे योग्य उत्तराधिकारी पेरुमाकोदैयार को निर्धारित किया। जब वे उनके समीप राजभार स्वीकार करने का अनुरोध ले गए, तो पेरुमाकोदैयार निरुत्सुक थे क्योंकि उन्हे यह भार भगवत-सेवा में बाधा लगी। उन्होंने ईश्वर पर इस निर्णय को छोड़ दिया। भगवान ने उन्हे राज्य स्वीकार करने का आदेश देते हुए ये वरदान भी दिये - भक्ति, पर चित्त अभिज्ञान शक्ति (इस लिए उनका नाम कलरिट्ररिवार पड़ा), वीरता, उदारता, बड़ी सेना का नेतृत्व और एक राजा के लिए आवश्यक अन्य गुण। ग्रह-नक्षत्र के अनुसार एक शुभ तिथि पर प्रभु के सेवक का चेर राज्य के सम्राट के रूप में राज्याभिषेक किया गया। निष्पक्ष राजा कलरिट्ररिवार ने तिरुवंचैकलम में भगवान शिव को प्रणाम करते हुए श्वेत चामर के साथ, राजसी हाथी पर नगर का भ्रमण किया। अचानक एक धोबी शोभायात्रा के सामने आ गया। उसका शरीर श्वेत चूने से लिप्त था। उसे देखते ही राजा के मन में भस्म से लिप्त भक्तों का रूप स्मरण हुआ। नायनार तुरन्त हाथी से उतरकर हाथ जोड़कर धोबी को प्रणाम करने लगे। धोबी चौंक गया और काँपते हुए स्वर में बोला, "मैं, आपका दास, एक धोबी हूँ।" भक्ति के शिखर पर खड़े महान अद्भुत राजा ने उत्तर दिया, "मैं, दास चेर, आपका दास हूँ।" चूँकि उसने राजा को भक्तों के पवित्र रूप का स्मरण किया था, इसलिए नायनार ने धोबी को उनके आगे चलने के लिए कहा। मंत्रियों और लोगों ने सम्राट की प्रशंसा की। वे पुष्प वृष्टि के मध्य राजनिवास पहुँचे। अन्य दो सम्राटों – चोल और पांड्य के साथ, धन्य चेर सम्राट ने पवित्र भस्म के प्रकाश तले भूमि पर शासन किया।
चेरमान पेरुमाल जल अभिषेक, पुष्प, सुगन्धित चंदन, धूप-दीप तथा नैवेद्य चढ़ाकर भगवान नटराज की पूजा करते थे। भगवान उनकी पूजा स्वीकार करके प्रतिदिन अपने स्वर्ण नूपुर से ध्वनि करते थे। उनकी कृपा प्राप्त करके, चेर राजा ने राज्य पर शिष्टतापूर्वक तथा न्यायपूर्वक शासन किया, और वृषभ ध्वज के साथ भगवान की जयजयकार करते हुए अनेक अनुष्ठान किए। पांड्य राज्य की राजधानी मदुरै में भद्रनार नाम के एक संगीतज्ञ थे। शिव भद्रनार पर स्वर्ण तथा रत्नों की वर्षा करके उनकी दरिद्रता दूर करना चाहते थे। जिनकी कीर्ति का वर्णन करने में वागदेवी भी असमर्थ हैं, जिन्हें भक्त भौतिक संपदा तथा परम पद दोनों के लिए पूजते हैं, उन्होंने चेर राजा को संबोधित करते हुए एक कविता लिखी तथा उसे संगीतकार को देते हुए चेर राजा से धन लेने के लिए कहा। (यह कविता ग्यारहवें तिरुमुरै - "आलवयुडैयार तिरुमुखपासुरम" में प्रथम है)। संगम कवि का आभार प्रकट करते हुए, भद्रनार चेरमान पेरुमाल के पास गए। समाचार सुनते ही, नायनार अपने शीर्ष के ऊपर हाथों को उठाकर, प्रसन्नता के आंसू बहाते हुए और उत्साह में कांपते हुए अपने भवन से भागते हुए आए और भद्रनार के चरण पकड़ लिए। संगीतकार ने भगवान का पत्र सम्राट को दिया। धन्य राजा जिन्हे भगवान द्वारा स्वयं को संबोधित पत्र प्राप्त था, सारी चेतना खो बैठे, उनकी जिह्वा स्तब्ध हो गई और वे परमानंद में नृत्य करने लगे।
राजा ने आदरपूर्वक उस पत्र को पढ़ा। उन्होंने अपने मंत्रियों को राजकोष में उपलब्ध सभी बहुमूल्य वस्तुओं को इकट्ठा करने का आदेश दिया। मंत्रियों ने रत्न, स्वर्ण और अन्य बहुमूल्य वस्तुओं का ढेर लगा दिए। राजा ने भद्रनार से अनुरोध किया कि वे हाथी, अश्व और उनके राजसिंहासन को भी स्वीकार कर लें!! किन्तु भद्रनार, जो संगीत के सात सुरों की धुन पर भगवान सोमसुंदरेश्वर के विषय में गाने मात्र में रुचि रखते थे, ने केवल वही वस्तुएं स्वीकार कीं जिनकी उन्हे आवश्यकता थी और शेष धन वापस लेने की विनती की। अपनी आवश्यकता की संपत्ति लेकर और सम्राट की अनुमति लेकर, संगीतकार विशाल दाँत वाले हाथी पर मदुरै की ओर चल पड़े। (यह घटना तिरुविलैयाडल पुराणम में भी वर्णित है)। चेर सम्राट की स्वर्णिम शासन निर्गल चलती रही। तमिल भूमि के अन्य दो सम्राटों चोल और पांड्य ने उनके साथ अच्छे संबंध बनाए रखे और भूमि शांतिपूर्ण रही।
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कलरिट्ररिवार (चेरमान पेरुमाल) नायनार दिव्य चरित्र - भाग २ - शिव के सखा से मित्रता
गुरु पूजा : आडी / स्वाती या कर्क / स्वाती
हर हर महादेव
See Also:
1. Thiruvilaiyadal Puranam - Thirumukang koduththa padalam