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तिरुज्ञान संबन्धर नायनार दिव्य चरित्र - भाग ३ - मौक्तिक छत्र

विभिन्न तीर्थ स्थानों पर वृषभ पर आरूढ़ उमा और स्कंद सहित भगवान के आनंददायक दर्शन करते हुए बाल संत तिरुज्ञान संबन्धर सीरकाली लौट आए। अपने नगर के उत्तम प्रतिभा (संबन्धर) को नमन करने की उत्सुकता को हृदय में लिए, नगर के वैदिक ब्राह्मण और भक्त पारंपरिक कुम्भ के साथ आगे आए। जनसमूह के अभिवादन को स्वीकार करते हुए, असीम कीर्ति और गहन विनम्रता के छोटे बालक, उनके साथ भगवान तिरुतोणियप्पार के चरणों की पूजा करने के लिए गए। एक सुंदर भवन में तिरुनीलकण्ट यालपाणर के लिए व्यवस्था करने के पश्चात, वे अपने घर गए। वे, अपने हृदय में सदैव निवास करने वाले और उस मंदिर में नाव पर आसीन, सीरकाली के भगवान के साथ कई दिनों तक रहे ।


 

The Pearl Shade for Sambandar at Patteeswaram
The Pearl Shade for Sambandar at Patteeswaram

तिरुज्ञान संबन्धर उस आयु तक पहुंच गए जब वे पवित्र वेदों को सीखने के अधिकारी बने, इसलिए उपनयन समारोह की व्यवस्था की गई थी। हालाँकिं, वेदागमों के भगवान के स्त्री स्वरूप, जगन्माता ने पूर्व ही समस्त वेद ज्ञान का क्षीर उन्हे पिला दिया था, पंडितों ने उन्हे पवित्र जनेऊ पहनाया और पारंपरिक रूप से उन्हे वेद अध्ययन और अभ्यास करने का सामाजिक स्थार दिया। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बालक तिरुज्ञान संबन्धर ने उनके पढ़ाना से पूर्व ही अपने मधुर स्वर में पवित्र वेद गाए। क्या उस धन्य भक्त को शिक्षा देने की कोई आवश्यकता थी, जिसे बिना किसी प्रयास के सभी ज्ञान के स्रोत, स्वयं भगवान ने ही सारा ज्ञान प्रदान किया था? उन अद्भुत बालक ने, जिन्हे उसी दिन दीक्षा दी गई थी, वैदिक विद्वानों के वेदों पर आधारित शंकाओं का निवारण किया! वेदों में बताए गए ज्ञान की व्याख्या करते हुए, संबन्धर ने "तुञ्चलुम तुञ्चल् इल्लाद पोलिदिनुम" पदिगम के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि भगवान के पवित्र पंचाक्षर ही प्रत्येक विषय का स्रोत हैं और अन्य सभी मंत्रों से श्रेष्ठ हैं। उन विद्वानों को इन शब्दों से सत्य का अनुभव हुआ। उन्होंने सीरकाली के भगवान को प्रणाम किया और संबन्धर के दिए उपदेश के अनुसार जीवन व्यतीत किया। 


एक दिन, शब्दों के सम्राट, तिरुनावुक्करसु, उनके अद्भुत देवारम के बारे में सुनकर बाल संत के दर्शन करने सीरकाली आए। सीरकाली के सम्राट – संबन्धर ने उनके आगमन को अपनी तपस्या का  वरदान मानते हुए उनके स्वागत करने और उनकी प्रशंसा करने के लिए बढ़े। दृढ़ और मधुर भक्ति के मुनि को, शारीरिक सुखों के ध्यान किए बिना, भगवान की सेवा करने के लिए हाथों में हल उठाया, जो वास्तव में उनकी सेवा के दृढ़ संकल्प का प्रतीक था, देखकर, पवित्र भस्म धारण किए हुए तिरुज्ञान संबन्धर के नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। जैसे ही वे उन महान द्रष्टा को साष्टांग प्रणाम करने जा रहे थे, उन्होंने देखा कि वे पूर्व ही झुके थे। अप्पर के साथ, उन्होंने सीरकाली के भगवान की पूजा की। वे वागीश को अपने घर ले गये और बड़े प्रेम से सेवा करते हुए सभी भक्तों के लिए भोज का आयोजन किया। परस्पर सम्मान के कारण दोनों संत कुछ दिनों तक एक साथ रहे, तद्पश्चात अप्पर ने जटाधारी प्रभु के विभिन्न मंदिरों की यात्रा करने के लिए वहाँ से प्रस्थान किया। 


तमिल भाषा में अपने पाण्डित्य को संबन्धर ने सीरकाली के भगवान पर रचित देवारम के माध्यम से दर्शाया जिनमे उन्होंने "तिरुवेलुकूत्रिरुकै" और "मालैमात्रु" जैसे विविध शब्दालंकार का प्रयोग किया हैं। उनकी भक्ति और भाषा पटुता ने तमिल साहित्य को अभिवृद्धि प्रदान की। उनकी रचनाएँ प्रकृति के अभिनव चित्रण के साथ उपमा जैसे साहित्यिक उपकरणों से समृद्ध हैं। यालपाण और मतंग चूलामणि के मधुर संगीत के साथ, उन्होंने तमिल भूमि के कोने-कोने में भक्ति को पुनर्जीवित करने हेतु, अपनी तीर्थयात्रा प्रारंभ की। भगवान को स्मरण कर, उनके विषय में गाते हुए, उन्होंने पश्चिम की ओर तिरुकण्णारकोयिल, पुल्लिरुक्कुम्वेलूर, तिरुनिन्रियूर, नीडूर, तिरुप्पुन्कूर, पलमण्णिपडिकरै, तिरुक्कुरुकै, अन्नियूर, पन्दणैनल्लूर और तिरुमणञ्जेरि क्षेत्रों की यात्रा की। उन्होंने तिरुवेल्विक्कुडि में भगवान हर के सुंदर विवाह रूप और तिरुतुरति में प्रभु के नक्तरूप के विषय में देवारम गाये। उन्होंने कोडिका, कञ्जनूर, मान्तुरै, तिरुमंगलक्कुडी, वियलूर, तिरुन्तुदेवनकुडी, इन्नंबर, वडकुरङ्गकाडुतुरै, पलनम, अय्यारू, पेरुम्पुलियूर, तिरुनेयतानं, मलपाडि, तिरुकानूर, अन्बिलालंतुरै  और तिरुमान्तुरै में भगवान की स्तुति की।


तिरुज्ञान संबन्धर भगवान के दर्शन के लिए तिरुपाचिलाचिरमं पहुंचे। वहां के राजा, कोल्ली मलवन की एक सुंदर युवा पुत्री थी। वह “मुयलकन” (अपस्मार) नामक रोग से पीड़ित थी। रोग के निवारण के सारे प्रयास विफल हो गए थे। भस्म विभूत भगवान के भक्तों के सम्प्रदाय का अनुसरण करते हुए, उन्होंने अपनी पुत्री को महेश्वर के मंदिर के भीतर रखा। जब उन्हे तिरुज्ञान संबंधर के आगमन की सूचना प्राप्त हुई, तो उन्होंने भगवान के महान भक्त के स्वागत के लिए नगर को शुभ प्रतीकों से आलंकृत करने का आदेश दिया। वे आगे आकर परमेश्वर के पुत्र के चरणों में गिर पड़े। उनकी अनुमति के साथ, वे संबन्धर को एक भव्य शोभा यात्रा में नगर से होते हुए मंदिर के प्रज्ज्वलित गोपुर तक ले गए। बाल भक्त ने बड़ी सहानुभूति के साथ राजा की युवा पुत्री की दयनीय स्थिति देखी। उन्होंने उसके रोग के निवारण हेतु एक देवारम के साथ उन महानतम भिषक से प्रार्थना की। उनकी भक्तिपूर्ण प्रार्थना के पूरा होते ही, युवा लड़की हिरण के समान उछलकर अपने पिता के साथ खड़ी हो गई। आश्चर्यचकित और प्रसन्न कोल्ली मलवन, संबन्धर के कोमल चरणों में गिर गए, जो भगवान शिव की अद्वितीय दया की प्रशंसा कर रहे थे। यद्यपि वे अतुलनीय आध्यात्मिक शक्ति के संत थे, उन्होंने इन चमत्कारों का श्रेय केवल प्रार्थना की शक्ति और प्रभु की महिमा को दिया। तिरुपाचिलाचिरमं के भगवान की आराधना करते हुए, वे तिरुपैङ्ङीली और पर्वत पर तिरु-ईन्गोय्मलै गए। वहाँ से उन्होंने तमिल भूमि के पहाड़ी पश्चिम भाग, कोङ्गु नाडु, की यात्रा की। भक्ति में मग्न, चेन्कुंरूर में निवास करते हुए चेन्कुंरूर, तिरुनंना और निकट के अन्य सुंदर मंदिरों में वृषभारूढ़ भगवान के बारे में संबन्धर ने कई देवारम गाये।


शीत ऋतु प्रारंभ हुआ। लोग गर्म वस्त्र धारण करने लगे, पर्वत श्वेत हिम से ढकने लगे, सूरज धुँध के आवरण को ओढ़ने लगा, पेड़ों से गिरे पत्तियों से बनी कंबल भूमि को ढकने लगी और मंदिर के उत्सव बंद द्वारों के पीछे आयोजित होने लगे। शीत ने लोगों को अस्वस्थ कर दिया। अविचल तिरुज्ञान संबन्धर के साथ यात्रा करने वाले भक्तों ने उनसे अपनी पीड़ा व्यक्त की। भगवान के पुत्र ने "अविनै किविनै" पदिगं (देवारम) के साथ भगवान की स्तुति की और यह प्रार्थना की - "..हालांकि यह मात्र प्राकृतिक क्रीडा है, हे भगवान! आपने कंठ में भयानक विष को रोक लिया, कृपा करें! कष्टों को अपने भक्तों को स्पर्श न करने दें!” इसे आदेश मान कर, मानो इसका पालन करते हुए, पूरे प्रांत में लोग उस कष्टप्रद ज्वार से तुरंत ठीक हो गए। तिरुपाण्डिकोडुमुडि, वेञ्जमाकूडल और निकट के अन्य मंदिरों में प्रभु की जय-जयकार करते हुए, सत्य दर्शन – शैव, के प्रतीक, पूर्व की ओर यात्रा करने लगे। करुवूर में भगवान को प्रणाम करते हुए वे कावेरी नदी के दक्षिणी तट पर आये। उन्होंने परायतुरै, तिरुवालन्तुरै, तिरुचेन्तुरै, तिरुकर्कुडि, मूकीचरम (उरैयूर), तिरुचिरापल्ली, आनैक्का, तिरुपालतुरै, एरुम्बियूर, नेडुङ्कलम, काट्टुपल्ली और तिरुवालमपोलिल में भगवान के मंदिरों को नमस्कार करते हुए कई देवारम गाए, जिन्हें तमिल वेदों के रूप में जाना जाता है। पून्तुरुति, तिरुकण्डियूर, चोत्रुतुरै, तिरुवेदिकुडि, तिरुवेण्णि, तिरुचक्करपल्लि, पुल्लमङ्गै – आलंतुरै, चेलूर, पालैतुरै, तिरुनल्लूर, तिरुकरुकावूर, अवलिवल्नल्लूर, तिरुपरिदि, तिरुपूवनूर, आवूर, तिरुवलञ्चुलि और प्रभु के कई अन्य मंदिरों के भी संबन्धर ने दर्शन किये। जिस समय संबन्धर ने यह तीर्थयात्रा की, उस समय परिवहन का कोई उचित साधन नहीं था। दिखने में छोटे किन्तु भक्ति में अपार इन बालक ने जनसमूह के मन में शैव धर्म की दीप प्रज्वलित करने के लिए इतनी लंबी यात्रा तय की। कई ऋतु व्यतीत हो गए इस तमिल भूमि की यात्रा में। जब वे तिरुवलञ्चुलि पहुंचे, तब ग्रीष्म ऋतु था और गर्मी से धरती संतपित थी। जब लोग गर्मी की भीषणता में बाहर निकलने में संकोच कर रहे थे, शिवानंद में लीन बाल संत शारीरिक कष्ट से व्याकुल नहीं हुए और उस गर्मी में भी अपनी तीर्थयात्रा को निरंतर बनाए रखा। तिरुवलञ्चुलि से पलैयारै जाने की इच्छा रखते हुए, वे अन्य भक्तों के साथ भगवान को प्रणाम करते हुए आरै मेत्रलि और तिरुचतिमुत्रम तक चले, और तिरुपट्टिश्वरम की ओर बढ़े। सभी प्राणियों के भगवान ने, आराम प्रदान करने के लिए, इस दृढ़ भक्त के लिए अपने भूतगण द्वारा एक भव्य मोती वितानप्रेषित किया। वितानसे प्रभु के प्रिय भक्त को मार्ग पर सुखद शीतलता मिलि। भगवान की दया की प्रशंसा करते हुए, संबन्धर, उस वितानके नीचे गए जो केवल ब्रह्मांड के स्वामी के ऊर्ध्व उठे हुए चरण की छाया ही थी। उन्होंने स्वयं को पट्टिश्वरम के भगवान के सामने समर्पित कर दिया और उनकी कृपा की प्रशंसा की। आगे बढ़ते हुए उन्होंने आरै वडतलि और इरुम्पूलै में प्रभु के चरणों को प्रसन्न मन से नमस्कार किया।

 

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गुरु पूजा : वैकासी / मूलम या वृषभ / मूला   

हर हर महादेव 

See also:
1. तिरुनावुक्करसु (वागीश) नायनार दिव्य चरित्र
2. chundharar 
3. Thilakavathiyar 

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 


 

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