प्राचीन राज्य चेदी की राजधानी तिरुकोवलूर नाम की नगरी थी । यह वह स्थान है जहाँ माना जाता है कि भगवान शिव ने अज्ञान के स्वरूप अंधकासुर का वध किया था । पर इतिहास में तिरुकोवलूर की ख्याति अपने राजा मेयपोरुल नायनार के कारण है । उनका जीवन सहनशीलता और अपने वैरियों के प्रति भी उदारता के आदर्श स्थापित करता है।
राजा का हृदय सदैव भगवान हर के स्मरण में मग्न था और उनके हाथ सदैव भगवान के भक्तों की सेवा में संलग्न । वे उन भक्तों के लिए अपने क्षमता के अनुसार सेवा करते थे । राज्य का निर्वाह वे न्यायपूर्वक, शांतिपूर्वक और भक्ति के लिए उचित वातावरण उतपन्न करके करते थे । साथ ही वे एक सामर्थ्य योद्धा थे जिस कारण कोई भी शत्रु आक्रमण करने के बारे में नहीं सोचता था । शिव भक्ति को ही राजा सर्वोच्च संपत्ति मानते थे । वे भस्म और रुद्राक्ष से शोभित भगवान के भक्तों के रूप से आकर्षित होते थे और उनकी हर इच्छा को पूरा करते थे ।
मुक्तिनाथन नाम का एक पड़ोसी राज्य का राजा था जो मेयपोरुलार को कभी भी रणभूमि में हरा न पाया था । क्या लोमड़ी कभी भी हाथी को सीधे लड़ाई में हरा सकता है? प्रतिशोध की भावना ने मुक्तिनाथन के मन को दुर्बल बना दिया और शिष्टाचार त्यागकर वह कुटिल योजना बनाने लगा । उसे पता था कि मेयपोरुलार अपना शीर्ष किसी भी व्यक्ति के सामने झुका देंगे यदि उसके अंग पर शिव भक्त के चिह्न (भस्म, रुद्राक्ष, जटा जैसे) हो तो । इसी अच्छाई का लाभ उठाते हुए उसने एक उपाय किया ।
मुक्तिनाथन ने अपने शरीर पर भस्म लेपन किया, अपने केशों को जटा बनाया, एक पुस्तक के भीतर एक छुरिका छिपाया और तिरुकोवलूर की ओर चल पड़ा । ऐसा लग रहा था मानो प्रकाश को अंधकार अपने लपेट में लेने वाला हो । रात का समय था जब वह कपटी, जिसका मन उस रात से भी काला था, मेयपोरुलार के महल में पहुंचा। महल के द्वारों के द्वारपालों ने उसे नमन करके अंदर जाने दिया क्योंकि वह शिवभक्त के वेश में आया था । अंत में वह राजा के अंत:पुर में पहुंचा जहाँ राजा निद्रा में लीन थे, कदाचित स्वप्न में भी वे शिव भक्तों की ही सेवा में मग्न थे । राजा के अंगरक्षक दत्तन ने शिव भक्त के वेश में मुक्तिनाथन से प्रतीक्षा करने का निवेदन किया। पर वह छली हठ करते हुए कहने लगा की वह हिमालय से आया था और उसे राजा से तुरंत भेट करनी थी । शिव भक्त के भेस के कारण दत्तन उसे रोखेने में असमर्थ था । अब रानी से शीघ्र अपने पति को जगाया और एक शिव भक्त के आने की सूचना दी । राजा बहुत प्रसन्न हुए और वे शिव भक्त के स्वागत के लिए दौड़ पड़े । कपटवेश में मुक्तिनाथन ने कहा – “भगवान का दिया एक विरल आगम है मेरे पास, जिसकी व्याख्या करने आया हूँ । इस कार्य के लिए हमे एकांत चाहिए इस लिए अपनी पत्नी से कहो कि वह बाहर प्रतीक्षा करें। ” उस निर्मल हृदय वाले राजा ने अपनी पत्नी को कक्ष से बाहर भेज दिया, आए हुए शिव भक्त को उचित आसान दिया और उसे प्रणाम करके बैठ गए। इसी अवसर की प्रतीक्षा में वह छली था । उस दुष्ट शत्रु ने छुरिका पुस्तक से निकाली और मेयपोरुलार पर प्रहार किया ।
दत्तन जिसे पहले से संदेह था, तुरंत कक्ष के अंदर आ गया और दुष्ट मुक्तिनाथन को मारने के लिए तत्पर हो गया । पर मेयपोरुलार ने उसे रोकते हुए कहा – “दत्तन! ये हम में से एक है। ” दत्तन असहाय था और उसने राजा से आदेश देने के लिए कहा । मेयपोरुलार ने दत्तन से उस छली को राज्य की सीमाओं तक मार्गरक्षण करने का आदेश दिया । कर्तव्य से विवश दत्तन ने मुक्तिनाथन को राज्य की सीमा पर सुरक्षित छोड़ा और लौट आया । राजा मेयपोरुलार प्रतीक्षा कर रहे थे । राजा ने दत्तन की प्रशंसा की । अपने मंत्रीगण को भगवान के भक्तों के प्रति प्रेम और उनके शरीर पर भक्ति के चिह्नों का आदर करने का परामर्श दिया। मेयपोरुलार ने अपने प्राण त्यागे और भगवान के चरणों में और भगवान के भक्तों के हृदय में नित्य स्थान प्राप्त किया । भगवान के भक्तों के चिह्नों को सत्य मानकर चलते, मेयपोरुलार को उस सत्य का साक्षात्कार हो गया जो रूप धरण कर चिदंबरम के स्वर्ण सभा में नृत्य करता है । मेयपोरुलार की महानता सदैव हमारे मन में रहे , जिसके कारण उन्होंने एक दुष्ट मनुष्य, जो उन्हे मारने आया था, की भी रक्षा की केवल इसलिए क्योंकि उसने अपने शरीर में भगवान के भक्तों के चिह्न धारण किए थे ।
गुरु पूजा : कार्तिकै / उतिरम या वृश्चिक/उत्तरा
हर हर महादेव
पेरिय पुराण – ६३ नायनमारों का जीवन