इरुक्कु वेलूर (जिसे अब बेलूर के नाम से जाना जाता है, सलेम जिले में वालप्पाडी से लगभग 6 किलोमीटर दूर है) का पवित्र नगर वैद्यनाथ का स्थल है जहाँ न केवल जन्मों के मलों का नाश होता है अपितु भौतिक शरीर के रोग भी ठीक होते हैं। गगनचुंबी गोपुरों वाला यह विशाल मंदिर, दसों दिशाओं से साधकों को भगवान शिव और उनकी पत्नी धर्मसम्वर्द्धनी के पवित्र चरणों में शांति पाने के लिए आकर्षित करता है।
कणम्पुल्ल नायनार का जन्म इसी महान स्थल में हुआ था। वे असीम धन के स्वामी थे और अपने अद्वितीय सिद्धांतों के लिए प्रसिद्ध थे। कामदेव को तिनके के समान जलाने वाले भगवान के प्रति उनका अथाह प्रेम था। उन्होंने समझा कि ईश्वर के चरणों का नित्य स्मरण ही वास्तविक धन हैं। उन्होंने अपने विशाल धन का सदुपयोग करते हुए उस प्रकाशमान भगवान के मंदिर को प्रतिदिन प्रज्वलित किया, जिन प्रभु के तीन नेत्र संसार के लिए प्रकाश के स्रोत हैं। शिव मंदिरों में ईश्वर की अनंत कीर्ति गाते हुए उन्हे सुंदर दीपों से सजाकर, वे भगवान की सेवा करते थे। तिलै के कनक सभा में नृत्य करने वाले भूतेश्वर को नमस्कार करने की इच्छा से, वे चिदंबरम गए। नटराज को प्रणाम करते हुए परमेश्वर के नृत्य की लय में उनका हृदय भी नाच उठा। तद्पश्चात वे तिरुपुलीश्वरम में रहने लगे और वहाँ भगवान के मंदिर को प्रकाशित करने की अपनी सेवा अनर्गल रखी।
अनेक बाधाएँ आईं तथापि, नायनार ने अपनी सेवा निरंतर रखी। उन्होंने अपने घर की वस्तुओं को एक-एक करके बेचा और प्रतिदिन घी से मंदिर में दीपक जलाए। फिर ऐसी स्थिति आई कि घर में विक्रय करने के लिए कुछ भी नहीं बचा! भिक्षा मांगना उन्हे मान्य नही था। वे, एक समय में सम्पन्न व्यक्ति, यमान्तक ईश्वर के प्रेम में अभी भी समृद्ध, हाथ में धन नहीं होने के कारण, खेतों में कठोर परिश्रम करने लगे। वे तृण (कणम्पुल्ल) काटने और बेचने लगे। इस प्रकार जो भी धन प्राप्त होता था, निष्कलंक भक्त ने शुद्ध घी से मंदिर में दीपक जलाए। एक दिन बहुत प्रयास करने पर भी वे तृण नहीं बेच सके। उनके पास और कुछ नहीं था! तथापि पवित्र सेवा को त्यागे बिना उन्होंने तृण जला कर मंदिर को प्रकाशित करने का निर्णय लिया। जैसे भगवान शंकर की भक्ति से मलों का ढेर शीघ्र ही भस्म हो जाता हैं, वैसे ही उनके द्वारा लाए गए सभी तृण शीघ्र समाप्त हो गए। उन्हें मंदिर को प्रकाशित करने के लिए अधिक तृण की आवश्यकता थी। भगवान के उस सच्चे भक्त ने, तब भी अपनी सेवा का परित्याग किए बिना, तृण के स्थान पर अपने केशों को रखा और उसे जला दिया, और साथ ही दो प्रकार के कर्मों के कारण को ही जला दिया!! परमेश्वर ने कणम्पुल्लर के निश्छल प्रेम की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपने चरण कमलों में स्थान दिया। जिस दृढ़ संकल्प और भक्ति के साथ कणम्पुल्ल नायनार ने दीपक जलाने के लिए अपने केश जलाने में संकोच नहीं किया, हमारे मन में सदैव रहे।
गुरु पूजा : कार्तिकै / कृतिकै या वृश्चिक / कृतिका
हर हर महादेव
See also:
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र