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तिरुवण्णामलै अरुणाचलेश्वर मंदिर – इतिहास और रोचक तथ्य

இறைவர் திருப்பெயர்: अरुणाचलेश्वर, अण्णामलैयार

இறைவியார் திருப்பெயர்: अपीतकुचाम्बा , उण्णामुलै-अम्मन

தல மரம்:

தீர்த்தம் : मंदिर के अंदर, बाहर और समीप पर्वत पर कुल मिलाकर 360 तीर्थ हैं। प्रमुख तीर्थों में ब्रह्मा तीर्थ, शिवगंगा तीर्थ, अग्नि तीर्थ और इंद्र तीर्थ हैं।

வழிபட்டோர்:सूर्य देव, प्रधाताराजन, अष्टवसु, ब्रह्मा, चंद्र, विष्णु, पुलकादिप, विश्वामित्र, पतञ्जलि, व्याघ्रपाद, अगस्त्य, सनंदन, संबंधर, अप्पर, सुंदरर, माणिक्कवाचकर, नक्कीरर, परणर , कपिल, पट्टीनत्तार , सेकिलार, इडैकाट्टु सिद्ध, अरुणगिरिनाथ , ईशान्या ज्ञानदेशिक, गुरु नमःशिवाय, गुह नमःशिवाय, रमण महर्षि, शेषाद्रि स्वामी, योगी रामसूरतकुमार, अम्मानियाम्मन और शैव एलप्पनावलर असंख्य देव, संत, सिद्ध पुरुष एवं भक्तों में से कुछ प्रसिद्ध नाम हैं।

Sthala Puranam

तिरुवण्णामलै राज गोपुरम 
  • इसे भगवान शिव के पंचभूत स्थलों में से एक माना जाता है, जो अग्नि तत्व (अग्निस्थल) का प्रतीक है।
  • तिरुवण्णामलै को छह आधार स्थलों में से मणिपूरक चक्र माना जाता है। 
  • यहां पर्वत साक्षात भगवान का स्वरूप है।
  • एक समय ब्रह्मा और महाविष्णु में इस बात पर विवाद हो रहा था कि उनमें से कौन श्रेष्ठ है। उनकी अज्ञानता को दूर करने के लिए, भगवान शिव, एक अनंत ज्योति(अग्नि) स्तंभ के रूप में, उनके सामने प्रकट हुए। विष्णु ने वराह (वन्य सूकर) का रूप धारण किया और इस स्तंभ के अंत की खोज करने के लिए नीचे की ओर गए। ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया और उसके आरंभ को देखने के लिए ऊंची उड़ान भरी। उनमें से कोई भी ज्योति स्तंभ के परिधि को देख नहीं सका। यह ज्ञात होने पर कि भगवान शिव ही सर्वोच्च हैं, उन दोनों ने उनकी पूजा की। भगवान शिव ने स्वयं को अग्नि के अनंत स्तंभ से एक पर्वत में परिवर्तित किया। यही वह पर्वत है जिसे तिरुवण्णामलै के नाम से जाना जाता है। तद्पश्चात उन्होंने पूजा के लिए लिंग (ज्योति का प्रतीक) का रूप धारण किया। यह वह स्थान है जहां लिंगोत्भव (शिव लिंग का उद्भव) हुआ था।
  • तमिल में, "अण्णु" का अर्थ है प्राप्य और " अण्णा" का अर्थ है अप्राप्य। "मलै" शब्द का सीधा सा अर्थ पर्वत है। अण्णामलै नाम उपरोक्त पौराणिक कहानी से लिया गया है जब भगवान शिव ने एक पर्वत का रूप धारण किया था जो अग्नि के स्तंभ का प्रतीक था, जिसकी सीमा पर्यंत ब्रह्मा या विष्णु नहीं पहुंच सके थे।
  • संस्कृत में, "अरुण" का अर्थ लाल होता है। "अचल" का अर्थ है पर्वत। अरुणाचल नाम का अर्थ वह पर्वत जो आग के लाल स्तंभ से प्रकट हुआ था। 
  • अण्णामलै कृत युग में अग्नि का पर्वत, त्रेता युग में माणिक का पर्वत, द्वापर युग में सोने का पर्वत और कलियुग में पत्थर का पर्वत है।
  • यह वही स्थान है जहां सूर्य, अष्टवसु, ब्रह्मा, चंद्र, विष्णु और अन्य भक्तों ने भगवान की पूजा की और आशीर्वाद प्राप्त किया।
  • दो विद्याधरों की भी कथा है, जिन्हें एक ऋषि ने बिल्ली और घोड़ा बनने का श्राप दिया था, जिन्होंने इस स्थान की परिक्रमा की और श्राप से मुक्ति प्राप्त की।
  • वज्रांगत नाम के एक पाण्ड्य राजा प्रतिदिन पर्वत की परिक्रमा करते थे और मंदिर में सेवाएँ करते थे।

 

Thirumurai Padhikams: Sambandhar - 1. உண்ணாமுலை உமையாளொடும் (1.10),                            2. பூவார்மலர்கொண் டடியார் (1.69);                     Appar   - 1. ஓதிமா மலர்கள் தூவி (4.63),                            2. வட்ட னைமதி சூடியை (5.4),                            3. பட்டி ஏறுகந் தேறிப் (5.5);     Manikkavachakar  -  1. ஆதியும் அந்தமும் (8.7),                            2. செங்கண் நெடுமாலுஞ் (8.8); Songs : Sambandhar -    பெண்ணாண் எனநின்ற (1.84.2),                               அண்ணாமலை யீங்கோயும் (2.39.2),                               அண்ணாவுங் கழுக்குன்றும் (3.64.1);              Appar -     தீர்த்தப் புனற் (6.7.2),                                ஊக முகிலுரிஞ்சு (6.16.5),                                கண்ணார்ந்த நெற்றி (6.21.8),                                விண்ணோர் பெருமானை (6.22.2),                                மூரி முழங்கொலி (6.23.5),                                அண்ணா மலையமர்ந்தார் (6.51.3),                                விண்ணோர் பரவ (6.82.2);              Sundarar -      தென்னாத் தெனாத் (7.2.6),                                கடங்களூர் திருக்காரிக் (7.31.3),                                தேனைக் காவல் (7.47.7);       Manikkavachakar -      வெளியிடை ஒன்றாய் (8.4.149),                                அண்ணா மலையான் (8.7.18),                                விண்ணாளுந் தேவர்க்கு (8.8.10);     Parana   -      மதியாரும் செஞ்சடையான் (11.23.38,42);            Sekkizhar    -      அண்ணாமலை மலை மேல் (12.21.313) திருநாவுக்கரசு சுவாமிகள் புராணம்,                                 அண்ணாமலை (12.28.970) திருஞானசம்பந்தர் நாயனார் புராணம்.                                                                   

Specialities

आदि अरुणाचलेश्वर मंदिर और तिरुवण्णामलै

नगर और मंदिर के विषय में कुछ रोचक तथ्य

  • तिरुवण्णामलै एक ऐसा स्थान है जिसके चिंतन मात्र से मोक्ष मिल जाता है।
  • यहां पर्वत स्वयं भगवान का स्वरूप है। पर्वत की परिक्रमा (गिरि प्रदक्षिणा) करना यहां की विशेष प्रथा है।
  • पर्वत की परिधि १४ कि.मी है। पूर्णिमा के दिन इस पर्वत की परिक्रमा करना बहुत शुभ होता है।
  • पर्वत के आठ दिशाओं में आठ विशेष दिशात्मक लिंग - अष्टलिंग हैं। ये अष्टलिंग इंद्र लिंग, अग्नि लिंग, यम लिंग, निरृति लिंग, वायु लिंग, कुबेर लिंग और ईशान्य लिंग हैं।
  • मुख्य मंदिर विशाल अरुणाचल पर्वत के पाद पर स्थित है।
  • तिरुवण्णामलै का अरुणाचलेश्वर मंदिर तमिलनाडु के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है।
  • यह मंदिर सात प्राकारों के साथ २५ एकड़ भूमि पर विस्तृत है।
  • बाहरी भित्ति के चार मौलिक दिशाओं में चार मुख्य गोपुर स्थित हैं। राज गोपुर पूर्वी दिशा में है और यह तमिलनाडु में दूसरा सबसे बड़ा गोपुर है। यह २१७ फीट ऊंचा है और इसमें ११ स्तर हैं। दक्षिणी गोपुर को तिरुमञ्जन गोपुर, पश्चिमी गोपुर को पेय गोपुर और उत्तरी गोपुर को अम्मणि अम्माल गोपुर कहा जाता है। मंदिर में पांचवें प्राकार और चौथे प्राकार के मध्य प्रवेश द्वार के रूप में प्रत्येक दिशा में चार गोपुर हैं, और केवल पूर्व में चौथे प्राकार और तीसरे प्राकार के बीच प्रवेश द्वार के रूप में एक गोपुर है जिसे किली गोपुर कहा जाता है।
  • पूर्वी गोपुर - राज गोपुर, नृत्य और अन्य कलाओं को दर्शाने वाली असंख्य मूर्तियों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
  • तिरुवण्णामलैयार मंदिर के अंदर अरुणाचलेश्वर के चरणों के चिह्न हैं। यह पेय गोपुर के दाहिनी ओर पाया जा सकता है।
  • मंदिर में प्रवेश करते ही वह स्थान है जहां रमण महर्षि ने तपस्या के माध्यम से कृपा प्राप्त की थी। सर्वसिद्धि विनायक के दाईं ओर पाताल लिंगेश्वर सन्निधि है, जहां रमण महर्षि ने अपनी तपस्या की थी।
  • माना जाता है कि इस मंदिर में ही महान अरुणगिरिनाथ के जीवन ने एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। मंदिर के अंदर कंबतिलयनार सन्निधि और ज्ञानपाल मण्डप सन्निधि पाए जा सकते हैं। जब अरुणगिरिनाथ ने 'अदल सेड नाराड' तिरुपुगाल गाया तब भगवान सुब्रह्मण्य कंबतिलयनार सन्निधि में ही स्तंभ पर प्रकट हुए और उन्हे आशीर्वाद दिया।
  • मंदिर में विश्वामित्र, पतञ्जलि, व्याघ्रपाद, अगस्त्य, सनन्दन और अन्य भक्तों द्वारा पूजे गए लिंग हैं।
  • अधिकांश मंदिरों में उपयोग किए जाने वाले अष्टबंध के पृथक, अरुणाचलेश्वर मंदिर में स्वर्णबंध (शुद्ध सोने से बना लेप) का उपयोग किया गया है।
  • मूलस्थान भगवान - अरुणाचलेश्वर स्वर्ण के नागाभरण कवच और ललाट पर मणींद्र से बने त्रिपुंड में सुशोभित हैं।
  • मंदिर में एक चतुर मुख लिंग है।
  • मणिक्कवाचकर ने तिरुवण्णामलै में तिरुवाचकम के तिरुवम्मानै और तिरुवेम्पावै दोनों की रचना की। तिरुवेम्पावै एक भक्ति ग्रंथ है जो इस नगर की स्त्रियों द्वारा भगवान की पूजा से पूर्व कार्यों के वर्णन के रूप में लिखा गया है, जिसका प्रारंभ प्रातः होने से पहले एक-दूसरे को जगाने से होता है।
  • यहां रचित अन्य प्रसिद्ध कृतियों में स्थल पुराणम - अरुणाचल पुराण, शैव एलप्प नावलर द्वारा गाया गया अरुणै कलंबकम और गुरु नमशिवाय द्वारा गाया गया 'अण्णामलै वेण्बा ' सम्मिलित हैं।
  • गुरु नमशिवाय, गुहा नमशिवाय, अरुणगिरिनाथ, विरुपाक्षदेव, ईशान्य ज्ञानदेशिक, देव शिखामणि देशिक जैसे महान संतों ने यहाँ निवास किया है।
  • जब देव शिखामणि देशिक के वंश में आने वाले एक महान योगी, नागलिंग देशिक, रामेश्वरम की तीर्थयात्रा पर गए, तो रामनाथपुर के राजा सेतुपति ने उनसे रामनाथपुरम के पांच मंदिरों का प्रबंधन करने का अनुरोध किया। इसलिए, उन्होंने कुन्रकुडी में तिरुवण्णामलै अदीनम की स्थापना की और इसका नाम कुन्रकुडी तिरुवण्णामलै अदीनम' रखा।

उत्सव 

  • कार्तिक दीप उत्सव, आषाढ़ पूरम, उत्तरायण और दक्षिणायन पुण्यकाल, चैत्र वसंत महोत्सव, स्कंध षष्ठी, मार्गशिरा पावै महोत्सव, फाल्गुन विवाहोत्सव जैसे सभी प्रमुख उत्सव विशेष रूप से मनाए जाते हैं। 
  • ब्रह्मोत्सव चैत्र मास में चित्रा नक्षत्र के दिन तीर्थ उत्सव के साथ होता है।
  • आडी-पूरम में देवी सन्निधि के सामने अग्नि पर चलने का उत्सव मनाया जाता है।
  • कार्तिक दीप महोत्सव तिरुवण्णामलै में मनाए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है।
  • माट्टुपोंगल, तिरुवूडल और स्वामी उय्याल उत्सव पर्व तै (पुष्य) मास में मनाए जाते हैं।
  • तै (पुष्य) मास के ५ वें दिन, भगवान दर्शन देने के लिए मनलूर नगर आते हैं।
  • तै मास के रथसप्तमी के दिन, अरुणाचलेश्वर कलसपाक्कम नगर में दर्शन देते हैं।
  • भगवान होयसल महाराज वीर बल्लाल के लिए माघ मास में माघ नक्षत्र के दिन पल्लीकोंडापट्टू नामक नगर में जाते हैं और वहाँ नदी में तीर्थवारी विधि होता है।
  • फाल्गुन (पंगुनी) महीने में विवाह उत्सव ६ दिनों तक चलता है।
  • तेप्पोत्सव (तरण उत्सव) इंद्र तीर्थ में आयोजित किया जाता है।

कार्तिक दीपोत्सव 

  • कार्तिक दीपोत्सव कार्तिक महीने में १० दिनों का पर्व है। कार्तिक महीने में कृत्तिका नक्षत्र के दिन भगवान शिव विष्णु और ब्रह्मा के समक्ष अग्नि के स्तंभ के रूप में प्रकट हुए थे। इस दिन कार्तिक दीप उत्सव मनाया जाता है। अपभरणी नक्षत्र के दिन प्रातः अरुणाचलेश्वर मंदिर में एक दीपक जलाया जाता है एवं पांच अन्य दीपक जलाए जाते हैं। इन दीपकों को अरुणाचलेश्वर सन्निधि के पास एक साथ रखा जाता है। तद्पश्चात इस दीपक को अण्णामलै  पर्वत के शिखर पर ले जाया जाता है। सायंकाल, पंच मूर्तियाँ ध्वजस्तंभ के पास मंडप में एकत्रित होतें हैं। फिर अर्धनारीश्वर गर्भगृह से बाहर आते हैं। उनके समक्ष अखंड दीप जलाया जाता है और पर्वत पर महा दीप जलाया जाता है। माना जाता है कि उस समय अरुणाचलेश्वर पर्वत पर ज्योति के रूप में प्रकट होते हैं। अर्धनारीश्वर केवल महादीप जलाते समय ही भक्तों को दर्शन देने के लिए बाहर आते हैं। अन्य सभी दिनों में वे अपने अधिष्ठित स्थान में ही दर्शन देते हैं। महादीप ११ दिनों तक पर्वत पर जलता रहता है।
  • तिरुवण्णामलै पर्वत पर दीप जलाने का वंशानुगत अधिकार रखने वाले लोग मछुआरों के भारद्वाज कुल से हैं। दीपोत्सव के दिन, मंदिर में उनका विशिष्ट सम्मान होता हैं और पर्वत पर दीप जलाने के लिए आवश्यक वस्तुएं दिए जाते हैं।
  • यदि कोई महादीप को देखता है, तो माना जाता है कि उसकी आने वाली २१ पीढ़ियाँ धन्य हो जाती हैं।
  • कार्तिक दीप का दार्शनिक सार यह है कि भगवान, जिनका कोई रूप या कोई नाम नहीं है, मन, भाषा और रूप से परे हैं, जीवों के उत्थान के लिए स्वयं को ज्योति के रूप में प्रकट करते हैं। प्राणियों के प्रति दया हेतु भगवान इस ज्योति के रूप में प्रकट हुए, वह ज्योति जो संसार का निर्माण करती है और जहां से शक्ति उत्पन्न होती है। यह सार अमिट रूप से सजीव और निर्जीव सृष्टि में व्याप्त है (अष्टमूर्ति दर्शन)। 

अभिलिखित इतिहास और मंदिर शिलालेख

  • तिरुवण्णामलै अरुणाचलेश्वर मंदिर में कई शिलालेख पाए गए हैं। ये शिलालेख तमिल, संस्कृत और कन्नड़ भाषाओं में हैं।
  • अभिलिखित शिलालेखों की कुल संख्या ११९ हैं। इनमें से अधिकांश चोल काल के हैं। ये शिलालेख दीप सेवा, अभिषेक, नंदनवन, नैवेद्य, उत्सव, भक्तों को प्रसाद आदि सेवाओं के लिए किए दान में भूमि, सोना, पशु आदि की घोषणा करते हैं। पाण्ड्य, पल्लव, होयसल राज वीर बल्लाल, विजयनगर रायर, तंजावूर नायक और कई व्यापारी एवं  किसान के शिलालेख भी पाए जाते हैं।
  • राजेंद्र I (१०३८ ईस्वी) की अवधि के दौरान, पेण्णा (दक्षिण पिनाकिनी)के उत्तरी तट पर तिरुवण्णामलै को मधुरांतक-वलनाट्टु तिरुवण्णामलै कहा जाता था। कुलोतुंग III के शासनकाल में, इसे पेण्णा (दक्षिण पिनाकिनी)के उत्तरी तट पर राजराज वलनाट्टु वाणकोप्पाडी अण्णानाट्टु तिरुवण्णामलै कहा जाता था। इन्ही के शासनकाल के २७ वें वर्ष में, इस स्थल का नाम पेण्णा (दक्षिण पिनाकिनी)के उत्तरी तट पर वाणकोप्पाडी अण्णानाट्टु तिरुवण्णामलै कहा कहा जाने लगा। फिर विजयनगर रायर के शासन के समय, इस स्थल का नाम पेण्णा (दक्षिण पिनाकिनी)के उत्तरी तट पर जयङ्कोण्ड चोलमण्डल सेङ्कुण्र कोट्ट वाणकोप्पाडी अण्णानाट्टु तनियूर तिरुवण्णामलै पड़ा। 
  • गंगैकोंड राजेंद्र चोल (१०२८ ईस्वी) का शिलालेख पहले प्राकार के भित्ति पर पाया जाता है, इससे यह स्पष्ट है कि पत्थर की चिनाई इससे पहले हुई होगी।
  • एकांबरेश्वर और चिदंबरेश्वर के मंदिरों में, जो पहले प्राकार में हैं, बारहवीं शताब्दी के शासन शिलालेख पाए जाते हैं।
  • किली गोपुरम में ३३ शिलालेख पाए जाते हैं, और पत्थर की चिनाई वीरराजेंद्र चोल के शासनकाल के दूसरे वर्ष (१०६३ ईस्वी) से पहले की गई होगी।
  • अपीतकुचाम्बा मंदिर की स्थापना १२ वीं शताब्दी में अलग से की गई थी। शिलालेखों में इसे तिरुकाम-कोट्टम के नाम से अंकित किया गया है।
  • तेरहवीं शताब्दी के मध्य के शिलालेखों में वीरराघवन भित्ति, वाणातिरायन भित्ति, तिरुवेगंबमुडयान भित्ति आदि का उल्लेख है। शिव पार्वती सन्निधि के मध्य पश्चिम की ओर नानकैयाव्वीश्वर मंदिर को बनवाने के लिए पल्लव परिवार की एक रानी (१२६९ ईस्वी) ने साढ़े तेरह कुली (१ कुली = १४४ वर्ग मिटर) के भूमि को बेचकर दस सहस्र सोने के मुद्राओं का दान किया था। पर आज वह मंदिर वहाँ नहीं है। 
  • विजयनगर सम्राट कृष्णदेवराय ने तिरुवण्णामलै मंदिर में बीस प्रमुख विकास कार्य अपने शासनकाल में करवाया था। उनमें से प्रत्येक कार्य आज भी भक्तों को कृष्णदेवराय का स्मरण कराती है। २१७ फीट की ऊंचाई पर भव्य पूर्वी राजगोपुर, शिवगंगा तीर्थ, सहस्र स्तंभ मण्डप, इंद्र विमान, विनायक रथ, तिरुमलादेवी अम्मन समुद्रम झील, सातवें दिन का उत्सव मंडप, गर्भगृह में २ द्वार, गर्भगृह द्वारों पर सोने की परत, अपीतकुचाम्बा मंदिर के द्वार, अंबा मंदिर के द्वार पर सोने की परत, देवी के मंदिर के सामने आरामुधु (अमृत) कुआँ, अरुणाचलेश्वर और अंबाल को अर्पित “कृष्णरायण” नामक आभूषण, नागाभरण, सोने की मूर्ति और चांदी के पात्र कृष्णदेवराय की कुछ महत्वपूर्ण सेवाएं हैं।
  • पल्लव राजा कोप्पेरुञ्चङ्गन और उनके पुत्र वेणावुडैयन के कई योगदान हैं। पूजा और अन्य पवित्र सेवाओं के लिए, उन्होंने भूमि दान की और अण्णमलैयार को अयंबडी रक्षकों द्वारा गीली और सूखी भूमियों से लाया गया धान अर्पित किया।
  • शिलालेखों में पाए गए मंदिर के अधिकारियों के नाम श्रीरुद्र, श्रीमाहेश्वर, श्रीमाहेश्वर के सहायक, निवासी, निवासी माहेश्वर, देवकर्मी, लेखाकार, अधिकारी और कई अन्य हैं। उनमें से, श्रीमाहेश्वर ही थे जो इस विषय की देखरेख करते थे कि धर्मशासन का पालन ठीक से हो रहा था।
  • भिन्न पूजा समय जैसे उषत्काल, कालसंधी, मद्याह्निक, सायंरक्ष, अर्धजाम आदि में अरुणाचलेश्वर, अपीतकुचाम्बा और भिक्षाटन की नैवेद्य सेवा के लिए भूमि दान से संबंधित कई शिलालेख हैं।

 

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स्थान राज्य: तमिलनाडु तिरुवण्णामलै पहुंचना: चेन्नई, वेल्लूर, कडलूर, चिदंबरम, सेलम, त्रिची, विल्लुपुरम से कई बसें हैं संपर्क करें: ०४१७५-२५२४३८

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