भूमि का वह भाग जिसे चेर राज्य कहा जाता था (केरल), उसे पुराण काल में महान ऋषि परशुराम ने उत्पन्न किया था । परशुराम जी ने भगवान शिव के जिस रूप की आराधना की उसमे पिनाक धनुष, पशुपातास्त्र बाण, परशु, कालग्नी, सुदर्शन चक्र, गदा, असि और कोटी शक्तिशाली भुजाएं थी। इस तपस्या के फलस्वरूप उन्हे अपना दिव्य परशु प्राप्त हुआ था । चेर राज्य अपने प्राकृतिक सौन्दर्य, परवतों, बड़े दंत वाले गजों और महादेव की भक्ति के लिए प्रसिद्ध था । इस राज्य के चेनकुंरूर (आज का चेंगणूर ) नगर में सुगंधित चंदन वन के बीच महादेव को अर्धनारीश्वर के रूप में पूजा जाता था ।
इस नगरी के कृषक वंश को चिरस्थायी ख्याति देने के लिए एक पारंपरिक कृषक परिवार में विरन्मिण्डर का जन्म हुआ । भगवान जिन्होंने अग्नि का रूप लिया था और जो शब्दों के परे है, उन शिव के चरणों को विरन्मिण्डर ने दृढ़ता से पकड़ रखा था । उन्होंने भक्ति में उत्पन्न होने वाले विघ्न के मूलभूत पाशों को काट दिया था। वे सदैव भगवान के सच्चे भक्तों का ध्यान रखते थे । ऐसी थी उनकी कीर्ति, वे जिनके मन में करुणामयी भगवान शिव स्थापित थे । विरन्मिण्डर जगह जगह यात्रा कर वहाँ प्रतिष्ठित भगवान की पूजा करते थे । इसी लिए कहते है कि भगवान ऐसे भक्तों के हृदय में अपना वास करते है। हर जगह वे पहले भगवान के भक्तों को प्रणाम और उसके पश्चात ही भगवान के दर्शन करते थे । यात्रा करते करते वे प्रसिद्ध तिरुवारूर नगर में पहुंचे । तिरुवारूर नगर में भगवान न केवल बड़े रथ में आसीन होते है किन्तु महान भक्तों के मन में भी आसीन होते है । जहाँ वेद भगवान के रथ बनते है, उस पवित्र तिरुवारूर में विरन्मिण्डर शिव जी के सुंदर रूप के ध्यान में मग्न हो गए ।
तिरुवारूर में देवाश्रय नाम का एक मंडप था, जहाँ भगवान नीलकंठ के महान भक्त इकट्ठे हो कर उनकी प्रशंसा सरल और मधुर शब्दों में करते थे। धन्य थे वे जिन्होंने इन भक्तों को देखा, सुना और उनका अनुसरण अथवा सेवा किया । मुक्ति प्राप्त करने के लिए और कोई मार्ग इतनी सरल नहीं थी जितनी देवश्रय सभा में सम्मिलित होना । विरन्मिण्डर ने इन भक्तों की सभा को दंडवत किया और उनके साथ कुछ दिनों तक रहे । एक दिन वहाँ सुंदरर, जो अपने आप को भगवान के भक्तों के सेवक मानते थे, आए और वे सीधे भगवान के दर्शन के लिए चले गए, बिना देवाश्रय सभा को नमन किये। यह संयोगात्मक था कि सुंदरर वहाँ भगवान से देवाश्रय सभा के दर्शन पाने के लिए प्रार्थना करने आए थे । विरन्मिण्डर ने ध्यान दिया कि सुंदरर सभा को नमन किए बिना मंदिर के भीतर चले गए थे। उन्होंने क्रुद्ध होकर घोषित किया – “वे सुंदरर, जिन्होने इस सभा को नमन नहीं किया, वे हममे से एक नहीं है ! वे भगवान जिन्होंने ऐसे भक्त को आशीर्वाद दिया है, जिन्होंने उन्ही के भक्तों को दंडवत नहीं किया,वे भी हममे से एक नहीं है !” भगवान शिव, जो भक्तों द्वारा क्रोध में कहे गए शब्दों को प्रशंसा में कहे गए शब्दों के समान स्वीकार करते है, उन्होंने विरन्मिण्डर को आशीर्वाद दिया । शिव जी ने सुंदरर को देवाश्रय सभा के भक्तों के बारे में तिरुतोंडर तोकै की रचना करने का आदेश दिया और उसके लिए पहले शब्द भी प्रदान किया । यही रचना पेरिय पुराण का मूल है । इस प्रकार विरन्मिण्डर ही सुंदरर के तिरुतोंडर तोकै के कारण बने ।
विरन्मिण्डर ने अपनी दीर्घ आयु भागवत भक्ति में लीन होकर और उनके भक्तों की मर्यादा की रक्षा कर बिताई । भगवान के चरणों तले, उचित मार्ग पर चल कर, वे मानो भगवान के सेवकों की सेना के प्रमुख थे । जो महत्व विरन्मिण्डर ने भगवान के भक्तों के प्रति आदर को दिया, वह हमारे मन में सदैव रहे।
गुरु पूजा : चित्रै / तिरुवाद्रै या मेष / आर्द्रा
हर हर महादेव
पेरिय पुराण – ६३ नायनमारों का जीवन