तिरुमरैकाडू के पश्चात, अप्पर के हृदय में पुनः तिरुविलिमिललै के भगवान के दर्शन की इच्छा जागी। वे नागपट्टिनम में मंदिर के दर्शन करते हुए वहाँ बढ़े। तिरुविलिमिललै से वे तिरुवावुडुतुरै जाकर, वहाँ भगवान की कृपा के बारे में देवराम गाये और पलैयारै की ओर बढ़े। वहां जैनों ने भगवान का एक बहुत पुराना मंदिर को छिपा दिया था और उस स्थान पर अपना अधिकार कर लिया था। अप्पर विनम्र थे किन्तु उनका शोषण नहीं किया जा सकता था, शिष्ट थे किन्तु कायर नहीं थे, न्याय के लिए लड़ते थे किन्तु हिंसा का आश्रय नहीं लेते थे, कोमल हृदय के थे किन्तु दृढ़ निश्चयी थे। मुनि ने यह घोषणा कर दिया कि जब तक उन्हे वहाँ के सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान के दर्शन नहीं होते तब तक वे वहीं मंदिर के समीप व्रत पर बैठे रहेंगे। सबके रक्षक भगवान उस देश के राजा के स्वप्न में प्रकट हुए और उन्हें उस स्थान के विषय में बताया जहां जैनों ने मंदिर को छुपाया था। राजा आश्चर्यचकित होकर उठे और अपने सभासदों के साथ भगवान द्वारा बताए गए संकेतों की सहायता से उस स्थान पर पहुंच गए। उन्होंने जैनों द्वारा उठाए गए बाधाओं को हटा दिया और मुनि को प्रणाम किया। राजा ने उस मंदिर के लिए एक भव्य गोपुर और वेदी बनवाई।
Aanda Arasu - Part 5 |
कावेरी नदी के दोनों तटों पर यात्रा करते हुए अप्पर ने वहाँ के मंदिरों में भगवान के दर्शन किए। उन्होंने अपने हाथ में लिए कुदाल से महान सेवा करते हुए तिरुवानैका, तिरुवेरुंबियूर, तिरुचिराप्पल्ली, करकुडी, तिरुप्परायतुरै और अन्य मंदिरों में दर्शन की और तिरुप्पैङ्ङीलि की ओर आगे बढ़े। यह यात्रा उन्हे तृषित, क्षुधित और श्रांत कर देने वाली थी – यही तीन प्रमुख शारीरिक न्यूनताएं हैं जिन्हें एक सामान्य मनुष्य दूर करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। अप्पर, स्थिर मनोभाव के साथ परमेश्वर के चरणों को पकड़कर, दृढ़ संकल्प के साथ तिरुप्पैङ्ङीलि के मार्ग पर आगे बढ़े। क्या एक श्रद्धालु भक्त के कष्टों को वे दयालु भगवान सहन कर सकेंगे है, वे भगवान जो सूअरों के विलाप पर भी स्वयं प्रकट हुए? दया के स्वरूप, भस्म में लिपटे एक वैदिक ब्राह्मण के रूप में, भोजन के साथ तिरुप्पैङ्ङीलि के मार्ग पर भक्त की प्रतीक्षा करते हुए प्रकट हुए। ब्राह्मण ने अप्पर को भोजन दिया और उनकी श्रांति दूर करने के लिए उन्हे पास के तालाब से ठंडा जल पीने के लिए कहा। अप्पर ने, देवताओं को अमृत देने वाले शिव, द्वारा दिये गये भोजन को ग्रहण किया जिससे उन्हें सुख की अनुभूति हुई। तद्पश्चात ब्राह्मण ने उनसे पूछा कि वह कहाँ जा रहे थे। संत से यह सुनकर कि वे तिरुप्पैङ्ङीलि जा रहे थें, उन्होंने, जिनकी संगति में महान संत संसार-सागर को पार करने की इच्छा रखते हैं, कहा कि वे भी वहीं जा रहे थें और अप्पर के साथ चल पड़े। जैसे ही वे तिरुप्पैङ्ङीलि पहुंचे, भगवान अदृश्य हो गए। मुनि, आश्चर्य और प्रशंसा से अभिभूत होकर, तिरुप्पैङ्ङीलि के भगवान के चरणों में गिर गए, और उनकी अपार कृपा की प्रशंसा की।
अब तिरुनावुक्करसर, मुक्तिप्रद तिरुवण्णामलै में भगवान के दर्शन की इच्छा से उत्तर की ओर यात्रा करने लगे । यहाँ से वे पल्लव साम्राज्य की ओर आगे बढ़े। उन्होंने सबसे पहले तिरुवोत्तूर के भगवान को साष्टांग प्रणाम किया। जब वे काञ्ची की ओर आ रहे थे, तो पूरे नगर को उन मुनि, जिन्होंने योगनाथ की कृपा से कई कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की थी, के स्वागत के लिए सजाया गया था। स्वागत करने वाले भक्तों के सागर को नमन करते हुए, वे काञ्ची एकांरम में भगवान के दर्शन के लिए गए, वे एकांरेश्वर जो ब्रह्मांड की माता की भक्ति से पिघल गए थे, और अपने प्रेम के आंसुओं के पवित्र जल से उनके चरणों को आर्द्र कर दिया। वे वहां रहे और प्रायः एकांरम मंदिर में पूजा करते थे। उन्होंने तिरुकाञ्ची श्मशान, तिरुकाञ्ची मेरली, तिरुमारपेरु और काञ्ची, जो अपने कई मंदिरों के लिए प्रसिद्ध नगर है, के अन्य मंदिरों में भी भगवान की सेवा की। वे तिरुकलुकुन्रम, तिरुवान्मियूर, और मयिलापुर के मंदिरों में सेवा करने के लिए उत्तर की ओर आगे बढ़े और कुछ समय के लिए तिरुवोत्रियूर में रुके। तद्पश्चात उन्होंने तिरुप्पाचूर, तिरुवालङ्काडु और तिरुक्करिकरै के मंदिरों के दर्शन किए। फिर वे स्वर्ण केशों वाले भगवान के निवास श्री कालाहस्ती पहुंचे जहां भगवान ने किराट भक्त कण्णप्प नायनार के सरल प्रेम की महानता दिखाई।
भगवान के सुंदर और पवित्रतम निवास - कैलाश को देखने की लालसा में, अप्पर उत्तर की ओर अग्रसर हुए। उन्होंने तिरुपरुपदम (श्रीशैलम) में पूजा-अर्चना की, फिर वर्तमान कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की यात्रा की और अंत में काशी पहुंचे। भक्ति परिपूर्ण हृदय से, उन्होंने, उन भगवान को नमस्कार किया, जिन्होंने अपनी जटाओं में गंगा को धारण करके काशी में उसी गंगा के तट पर अपना निवास स्थान बना लिया था। अन्य तीर्थयात्रियों को पीछे छोड़ते हुए, अप्पर कैलाश पर्वत की यात्रा के पथ पर चल पड़े। वे हिमालय के वनों की ओर चले गए जहाँ देवता भी अकेले जाने से डरते थे। उन दिनों जब सहस्र किलोमीटर की इतनी लंबी दूरी के लिए परिवहन का कोई उचित साधन नहीं था, अप्पर का यहां तक पहुंचना एक अद्भुत विषय था। उन्होंने बिना किसी सहायता या वाहन के पर्वतों के विषम स्थानों से होकर यात्रा की। केवल भक्ति और दृढ़ संकल्प ने उन्हें आगे बढ़ाया। ये दोनों प्रेरक उतने ही विशाल थे जितना वह पर्वत था जिसकी ओर वे अग्रसर थे। दिन-रात चलते-चलते उनके कमल जैसे पैर थक गए, किन्तु पर्वत पर अपनी अर्धांगिनी सहित भगवान के दर्शन करने की उनकी उत्सुकता कम नहीं हुई। उन्होंने आगे बढ़ने और अपनी यात्रा निरर्गल रखने के लिए अपने हाथों का उपयोग करना प्रारंभ कर दिया। कुछ समय पश्चात उनकी कलाई टूट गई, पर वे अटूट प्रेम समेत अपने शरीर के साथ रेंगते हुए आगे बढ़े। उनकी वक्षस्थल की हड्डियाँ टूट गईं, उनका मांस निकलने लगा और अब वे रेंगने में भी सक्षम नहीं थे। उस स्थिति में भी उनका संकल्प रत्ती भर भी कम नहीं हुआ। वे अब अपने आराध्य की ओर अपनी यात्रा में आगे बढ़ते हुए लुढ़कने लगे। पूरा शरीर खंडित हो गया था और वे अब लुढ़क भी नहीं पा रहे थे। उन्होंने फिर भी अपने शरीर को आगे की ओर धकेलने और आगे बढ़ने का प्रयास किया। वस्तुतः उनका दृढ़ निश्चय अटूट और विशाल था!
संसार को अप्पर के कुछ और मधुर देवराम का आशीष प्रदान करने के उद्देश्य से, भगवान एक ऋषि के रूप में आए और अप्पर से इतने परिश्रम का कारण पूछा। जब अप्पर ने कहा कि वे कैलाश पर भगवान का दर्शन करना चाहते थे, तो ऋषि ने उन्हे वापस लौटने का परामर्श दिया क्योंकि जिस प्रयास में वे लगे थे वह अत्यंत कठिन था। किन्तु अप्पर दृढ़ थे कि वे कैलाश में भगवान के दर्शन किए बिना नहीं लौटेंगे। भगवान, जो वास्तव में अपने भक्तों की शक्ति हैं, भक्त के दृढ़ समर्पण को देखकर क्षितिज में अदृश्य हो गए और आकाश से एक वाणी आई, "हे! महान वागीश! उठो! इस तालाब में अवगाहन करो! तुम तिरुवैयारु के तालाब से उठ जाओगे जहाँ तुम हमें उस रूप में देख पाओगे जिस रूप में हम कैलाश में विराजमान हैं।" कृपा स्वरूप की कृपा से, उनके सभी घाव ओझल हो गए और वे एक दीप्तिमान शरीर के साथ उठ खड़े हुए। प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए शीर्ष के ऊपर हाथ जोड़कर वे तालाब में उतर गया। पूरे जगत को आश्चर्यचकित करते हुए, अत्यंत अपरिमित कृपा से, वे तिरुवैयारु के तालाब में प्रकट हुए। तिरुवैयारु में ही उन्हें कैलाश पर शिव और शक्ति के दर्शन हुए। वे तिरुवैयारु में भगवान के मंदिर के सामने उनकी स्तुति करते हुए बाहर आये। मंदिर ही कैलाश के रूप में दिखा। विष्णु, ब्रह्मा एवं इंद्र अन्य देवताओं, असुरों, ऋषियों और गंधर्वों के साथ भगवान की स्तुति कर रहें थें, दिव्य अप्सराएं रंभा और ऊर्वशी नृत्य कर रहीं थीं, गंगा और अन्य नदियां भगवान की पूजा कर रहीं थीं और सर्वोत्तम शिवभक्त नन्दी निवास की रक्षा कर रहें थें। चांदी के पर्वत पर मरकत की लता से लिपटे देदीप्यमान सुंदर माणिक के समान, पवित्र बैल पर शैलपुत्री के साथ भगवान शिव प्रकट हुए। अप्पर ने उन्हें प्रणाम किया, गाने का प्रयास किया किन्तु शब्द नहीं मिले, हर्ष से नृत्य करने लगे, आनंद से पूरा शरीर पुलकांकित हो गया और वे रोने लगे। उन महान मुनि की स्थिति को शब्दों में कैसे वर्णित किया जा सकता है?! उन्हें उनके अटूट दृढ़ संकल्प के लिए ही यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई थी। वे बहुत समय तक उस आनंद के सागर में थे। तब भगवान उन्हे इस संसार पुनः ले आए। स्वयं को आश्वासन देते हुए कि यह भगवान की कृपा थी, अप्पर ने अपने अनुभव का वर्णन एक सुंदर देवारम "मादर पिरै कण्णियानै" के रूप में गाया। उन्होंने कैलाश के उस अनूठे दृश्य का विवरण किया। वे तिरुवैयारु में भगवान की सेवा, अभिवादन और विभिन्न रूपों से स्तुति – तिरुताण्डकम, तिरुक्कुरुन्तोकै, तिरुनेरिचै और तिरुविरुत्तम, करते हुए वहाँ कई दिनों तक रहे।
तिरुनावुक्करसु (वागीश) नायनार दिव्य चरित्र - भाग ६ - हे नाथ! आपके चरणों में!
गुरु पूजा : चितिरै / सदयम् या मेष / शतभिषा
हर हर महादेव
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र