तिरुवैयारु में जटाधारी भगवान शिव के दर्शन करने के पश्चात, अप्पर ने उस अद्भुत नगर के समीप के मंदिरों की यात्रा की। उन्होंने तिरुनेतानम एवं तिरुमलपाडी में भगवान को प्रणाम किया और तिरुपून्तुरुती पहुंचे। सत्य के स्वरूप, श्वेत भस्म से लिपटे, प्रकाशमान मोती के समान और अपने श्वेत बैल पर आरूढ़, शिव की स्तुति करते हुए मुनि, जो भगवत सेवा को सर्वोच्च मानते थे, ने त्रिनेत्र भगवान के दर्शन करते हुए उस नगर का भ्रमण किया। शिव की कृपा से, उन्होंने वेदों के प्रकटिकर्ता भगवान की स्तुति में देवारम गए और उस स्वात्मानंद में मग्न भगवान की सेवा करने के लिए एक भव्य मठ की स्थापना की। वहां रहते हुए उन्होंने भगवान पर कई देवारम गीतों की रचना की। जब वह तिरुपून्तुरुती में थे, तब दक्षिण में पाण्ड्य साम्राज्य में शैवम की स्थापना करके बाल संत, जिन्होंने न केवल राजा के मेरुदंड को अपितु उनके न्याय को भी व्यवस्थित किया था, का आगमन हुआ। यह सुनकर कि वागीश तिरुपून्तुरुती में थे, वे उन मुनि से मिलने के लिए वहां दौड़ पड़े, जिनका वे इतना आदर करते थे कि वे उन्हे अप्पा (पिता) नहीं अपितु अधिक सम्मान के साथ अप्पर कहकर संबोधित करते थे।
Aanda Arasu - Thirunavukkarsar and Thirugyanasambandhar meeting at Thiruppunthuruththi. |
यह सुनकर कि विजयी होकर बाल संत आ रहे हैं, अप्पर, उनके दर्शन की कामना से, बिना किसी को दिखे, उस विशाल भीड़ में सम्मिलित हो गए जो तिरुज्ञान संबंधर के स्वागत के लिए इकट्ठी हुई थी। महान व्यक्तियों की जैसे-जैसे महानता बढ़ती है, वे और विनम्र होते जाते हैं। अपनी सेवा एवं भक्ति के लिए प्रशंसित मुनि, जिसके लिए भगवान ने उन्हें तिरुवैयारु में कैलाश के दर्शन दिए थे, ने विनम्रतापूर्वक उस मोती की पालकी को उठाई जिसमे तिरुज्ञान संबंधर विराजमान थे। जब पालकी तिरुपून्तुरुती पहुंची, तब संबंधर ने महान मुनि के विषय में पूछा। इसे सुनकर, उन अद्भुत विनम्र मुनि ने उत्तर दिया, "आपके सेवक को आपके चरणों को उठाने का महान सौभाग्य मिला है। मैं यहाँ हूँ!" यह देखकर विचलित, संबंधर ने तुरंत पालकी से बाहर निकलकर महान मुनि को प्रणाम किया और कांपते शब्दों के साथ पूजानीय मुनि से पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। अप्पर ने उन्हें पूरे प्रेम से प्रणाम किया और कहा कि उन्हें महान तिरुज्ञान संबंधर की सेवा करने का कोई अन्य उपाय नहीं मिला। भक्ति के दो महासागरों का मिलन देखने के लिए भक्तों का पूरा समुद्र उमड़ पड़ा।
शैवम के वे दो दीपस्तंभ तिरुपून्तुरुती में ब्रह्मांड के पिता के दर्शन के लिए एक साथ गए। वागीश ने संबंधर के साथ आए भक्तों से पाण्ड्य साम्राज्य में शैव के पुनरुत्थान की गाथाओं को उत्सुकता से सुना। रानी मंगैयर्करसी के स्नेह और कुलचिरैय्यर की भक्ति के बारे में सुनकर, वे उस तमिल राज्य की तीर्थयात्रा पर जाने के इच्छुक हुए। वागीश से तोंडै राज्य में भगवान के भव्य मंदिरों के बारे में सुनकर, बाल संत उनके दर्शन के लिए निकल पड़े। शीघ्र ही, तिरुपुत्तूर से आरंभ करते हुए, अप्पर पाण्ड्य साम्राज्य की ओर गए। वे ज्येष्ट भगवान शिव के प्रसिद्ध तिरु-आलवाय (मदुरै) के भव्य मंदिर पहुंचे। करबद्ध और एकाग्र मन से, उन्होंने मधु रूपी परमानंद, जो प्रभु प्रदान करते है, का आनंद लिया । मदुरै में, उनकी पूजा तीन अद्भुत भक्तों द्वारा की गई, यही वे तीन थे जिन्होंने पाण्ड्य साम्राज्य में शैवम की पुनर स्थापना की - राजा निन्राचिर नेडुमार नायनार, रानी मंगैयर्करसी और प्रधान मंत्री कुलचिरैयर। अप्पर ने तिरुपूवनम में उन भगवान की स्तुति की, जिन्होंने महाविष्णु के अवतार, अयोध्या के प्रसिद्ध राजा, श्री रामचंद्र को रामेश्वरम में आशीर्वाद दिया था। मार्ग में उन्होंने तिरुनेलवेली, तिरुकानपेरऔर कई अन्य मंदिरों के भी दर्शन किए।
पाण्ड्य साम्राज्य में मंदिरों के दर्शन के पश्चात, अप्पर चोल साम्राज्य में, पूम्पुकलूर नामक नगर में आए। भक्ति से आप्लावित हृदय के साथ वहां भगवान की सेवा करते हुए, उन्होंने अपने कई प्रसिद्ध तिरुताण्डकम स्तुति और कई अन्य देवारम गाए। भगवान पूरे जगत को मुनि के परमानन्द स्थिति को दिखाने के इच्छुक थे। उन्होंने मंदिर परिसर के रेत और कंकड़ के बीच-बीच में सोना और रत्न उत्पन्न किये। मंदिर परिसर को स्वच्छ करते समय अप्पर ने उन सोने ओर रत्न को सामान्य ही समझकर अपने हाथ के कुदाल से उनका भी सामान्य कंकड़ों के साथ तालाब में प्रक्षेपण कर दिया। वे वास्तव में अत्यंत धनवान थे; उनके पास तो सबसे महान धन था - शिव। उन मुनि ने सांसारिक जीवन के प्रमुख विकर्षणों - धन और स्त्री, पर विजय पा लिया था। उनके मनोबल की परीक्षा के लिए स्वर्ग की सुंदरियाँ उनके समक्ष नृत्य करतीं थीं, गाती थीं, उन पर पुष्प बरसतीं थीं और उन्हे वश में करने के लिए सभी उपायों का प्रयोग करतीं थीं। किन्तु तिरुनावुक्करसर, अटल मन से भगवान की सेवा करते हुए, इन कामिनियों से गाते हुए कहते थें, "मुझे तुमसे क्या चाहिए? मैं तिरुवारूर के भगवान का सेवक हूं। अपने आप को कष्ट मत दो"। भगवान के ध्यान से उन्हे अविछिन्न करने में असमर्थ होकर, उन सुंदरियों ने उन्हे नमस्कार किया और लौट गए। काम को भस्म करने वाले भगवान का आशीर्वाद जिनपर हो, उनपर कामदेव के अमोघ बाण भी विफल हो जाते हैं।
उस भक्ति के साथ, वागीश कुछ समय तक शिवकृपा का आनंद लेते हुए उस परम आनंदमय स्थिति में रहे। फिर उन्होंने "पुन्य! उन्नडिके पोदुकिन्रेन" (ओह पुण्य स्वरूप! मैं आपके चरणों में हूं) गाते हुए, गुणों से परे भगवान के शाश्वत आनंदमय चरणों में शरण ले लिया। मेष (चित्रा) मास के शतभिषा नक्षत्र के दिन, स्वर्ग से पुष्पों की वर्षा और ऋषियों की स्तुति के साथ वागीश ने शिवपद प्राप्त की। महानतम है भगवान! अद्भुत है मुनि! अनुकरणीय उनकी हैं सेवा! प्रेरणादायक हैं उनके देवारम! तिरुनावुक्करसु नायनार की अकल्पनीय भक्ति, दृढ़ और निर्दोष सेवा हमारे मन में सदैव रहें।
गुरु पूजा : चितिरै / सदयम् या मेष / शतभिषा
हर हर महादेव
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र