सेरुविल्लीपुत्तूर नगर में भगवान शिव की पूजा करने वाले पुरोहितों की परंपरा में भक्त पुगल्त्तुनैयार का जन्म हुआ था। भक्ति ने उनके हृदय कमल में परमेश्वर के चरणों को अंकित कर दिया था। शास्त्रोक्त पूजा कर के वे भगवान शिव के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करते थे। अपनी जटाओं में गंगा को धारण करने वाले गंगाधर की पूजा नायनार के ज्ञान की उपासना, उनकी तपस्या और सर्वोच्च भक्ति की अभिव्यक्ति थी। एक समय उस क्षेत्र में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। जबकि कई लोगों ने उस क्षेत्र का त्याग किया, नायनार ने ऐसे विचार का भी वर्जन करते हुए कहा, "मैं अपने भगवान का त्याग नही करूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए"। यद्यपि भूमि सूख गई थी, किन्तु उनका हृदय सदैव की भाँति भगवान के प्रेम से आर्द्र था। यह सही कहा गया है कि भले ही सृष्टि के पांच भूत अस्त-व्यस्त हो जाएं, किन्तु सच्चे भक्त जो अपने हृदय में भगवान शिव को स्थापित करतें हैं, वे किसी भी परिस्थिति में अडिग रहतें हैं।
उस अकाल में भी, नायनार ने उपलब्ध सर्वोत्तम पुष्पों को लाकर शीतल जल से भगवान का अभिषेक किया। भिक्षा हेतु अटन करने वाले ईश्वर को भला प्रेम के अतिरिक्त और क्या प्रिय है?! जिनका दिव्य गंगा द्वारा सदा अभिषेक होता हैं, वे गंगाधर आनंदपूर्वक नायनार के हृदय में और उस मंदिर में विद्यमान रहें। पुगल्त्तुनैयार का मन सदैव सेवा करने के लिए तत्पर था, किन्तु कठिन परिस्थितियों में उनका भौतिक शरीर कब तक टिक सकता था? भूख के कारण थकान ने उनके शरीर को ग्रस्त कर लिया था। एक दिन जब वे अभिषेक के लिए जल लेकर आए, तो भगवान का अभिषेक करते करते मूर्छित हो गए। वहीं गर्भगृह में वे निद्रा अवस्था में चले गए। शिव उनके स्वप्न में आए और उनसे कहा कि जब तक भूमि फिर से समृद्ध नहीं हो जाती, तब तक उन्हें प्रतिदिन एक मुद्रा दिया जाएगा। कृश और क्षीण, पुगल्त्तुनैयार को मंदिर की वेदी पर एक मुद्रा प्राप्त हुई। महादेव की कृपा से कृतज्ञ, उनका मुख प्रफुल्लित हो उठा।
नायनार को तब से प्रतिदिन वेदी पर एक मुद्रा मिलती थी। अपनी भूख और थकान से मुक्त, वे भगवान की सेवा करते गए। अपने प्रेम से प्रतिदिन देवादिदेव महादेव का अभिषेक करते हुए, वे पार्वतीपति के शीतल चरणों में पहुँच गए। पुगल्त्तुनै नायनार की सेवा तथा परमेश्वर के प्रति मातृ प्रेम और समर्पण हमारे मन में सदैव रहें।
गुरु पूजा : आवणी / आयिलयम या सिंह / अश्लेषा
हर हर महादेव
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