logo

|

Home >

devotees >

eribhakta-nayanar-divya-charitra

एरिभक्त नायनार दिव्य चरित्र

    
कोङ्गु नाडु में स्थित करुवूर चोल राजाओं की एक महत्वपूर्ण राजधानी थी। इस नगरी में प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ साथ मनुष्य द्वारा बनाए आश्चर्य भी थे। इस नगर में प्राचीन आनिलई मंदिर है जहाँ भगवान पशुपतीश्वर की पूजा की जाती है । 

Eripaththa Nayanar - The History of  Eripaththa Nayanar
एरिभक्त और  पुगल चोल की भक्ति जो एक दूसरे से बढ़कर है!

इस महान नगरी के गौरव को बढाने के लिए, यहाँ भगवान के भक्त एरिभक्त रहते थे ।  जब कभी भी कोई भक्त संकट में होता था तो एरिभक्त वहाँ अपनी कुल्हाड़ी के साथ उस भक्त की रक्षा के लिए पहुँच जाते थे। उसी नागरी में शिवकामियाण्डार नाम के एक वृद्ध भक्त रहते थे। वे प्रतिदिन भगवान पशुपतीश्वर के लिए सुगंधित पुष्पों से बनी मालाएं अर्पित करते थे। इसी सेवा में उनका तन और मन लगा रहता था । एक दिन प्रातःकाल नियमित रूप से प्रति दिन की तरह, भगवान के स्मरण में मग्न वे अपनी टोकरी में मालाएं भर रहे थे। फिर शीघ्र चलने लगे ताकि वे समय पर मंदिर पहुँच सके। उस दिन महानवमी का शुभ दिन था। सम्राट पुगल चोल के रक्षागण और महौत राजकीय हाथी को कावेरी में स्नान के पश्चात नगर में ले जा रहे थे। उसी मार्ग पर शिवकामियाण्डार चल रहे थे। अचानक उस हाथी ने शिवकामियाण्डार के हाथ से टोकरी छीन ली और मालाओं को नीचे गिरा दिया । रक्षागण और महौत ने हाथी को संभाल लिया और शीघ्र उस स्थान से निकल गए। दुखि, शिवकामियाण्डार ने उस हाथी को अपने डंडे से मारणे के लिए उसका पीछा करना चाहा पर वृद्ध अवस्था के कारण वे कुछ न कर पाए। वे वहीं टोकरी के समीप बैठ कर रोने लगे – “हे शिव! आपने गज रूपी असुर का वध कर उसके चमड़े को वस्त्र बनाया था। आप दीनों के बल है। पर अब मैं क्या करूँ? जिन सुगंधित मालाओं को मैं आपके सुंदर जटाों  के लिए लाया था, उस हाथी ने सब नष्ट कर दिया! हे मेरे शिव!”

उसी समय एरिभक्त उस मार्ग से चल रहे थे। उन्होंने शिवकामियाण्डार की दयनीय अवस्था देख कर वहाँ रुख कर उन्हे नमन किया। हाथी द्वारा किए गए दुष्कर्म का पता चलते ही वे क्रोधित हुए। आंधी के समान वे चल पड़े, मानो यमराज उस हाथी के प्राण लेने जा रहे हो। एक ही प्रहार में उन्होंने ने उस हाथी के सूंड को काट दिया। तद्पश्चात वे राजा के रक्षागण, जिन्होंने न केवल अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया अपितु एरिभक्त के मार्ग में भी बाधा डाला, को मारने लगे। कुछ रक्षक जो बच कर भागे, वे सीधे मुख्य रक्षा अधिकारी के पास गए और ये सूचित किया – “राजकीय हाथी और कुछ रक्षागण को मारा गया है। कृपया राजा को सूचित करें।” शत्रुओं के दु:स्वप्न, राजा पुगल चोल, यह सुनकर क्रुद्ध हुए और गरजते सिंह के समान घटना स्थल पर पहुंचे। उनके साथ उनकी चतुरंगी सेना भी थी।  राजा को आश्चर्य हुआ,वहाँ कोई भी शत्रु सेना नहीं थी, केवल एक साधु थे और अपने ही रक्त में रेंगता हुआ हाथी था। राजा ने क्रोधित स्वर में पूछा “किस शत्रु में इतना साहस है?” रक्षकों ने कुल्हाड़ी हात में लिए खड़े एरिभक्त की ओर संकेत किया। राजा को आश्चर्य हुआ और वे बोले “यदि एक प्रेम स्वरूपी भक्त को ऐसा कार्य करना पड़ा तो अवश्य कोई प्रबल कारण होगा। मैने ऐसा क्या घोर पाप किया है कि एक भक्त को ऐसा उपाय करना पड़ा?” राजा पुगल चोल ने अपने घोड़े से उतर कर, ज्वालामुखी स्वरूपी एरिभक्त को प्रणाम किया और सविनय पूछा – “इस हाथी और इन रक्षकों ने क्या त्रुटि की जिसका परिणाम यह मिला?” एरिभक्त ने राजा को घटना का विवरण दिया। उन महान राजा पुगल चोल को बहुत ग्लानि हुई और उन्हे लगा की वे भी दंड के अधिकारी थे क्योंकि उनके ही हाथी और रक्षकों के कारण भगवान के सेवक की यह स्थिति हुई थी । वे एरिभक्त के पैरों पर गिर कर क्षमा मांगने लगे  ।  “केवल हाथी और रक्षकों को मारने से दंड पूरा नहीं हुआ। आप मेरा भी वध कीजिए। कुल्हाड़ी से वध वर्जित है, इस लिए आप इस तलवार से मेरा वध कीजिए!” यह कहते हुए राजा ने अपनी तलवार एरिभक्त को सौंप दी । 


राजा का भगवान के भक्तों के प्रति प्रेम देखकर एरिभक्त सोच में पड गए – “प्राय: मैंने इन राजा के रक्षकों को मार कर अनुचित किया। राजा तो स्वयं दंड स्वीकार करने के लिए तत्पर है। इन जैसे महान राजा को कष्ट देने के लिए मुझे अपने प्राण त्याग देने चाहिए ।” दूसरी ओर राजा इस सोच में मग्न थे – “मेरे प्राण देने से संभवत: मेरे दुष्कर्म मिट जाएंगे ।” देखते ही देखते एरिभक्त ने अपने स्वयं के गर्दन को काटने के लिए तलवार उठा लिया। यह देखकर राजा स्तंभित रह गए। शीघ्र उन्होंने एरिभक्त के हाथों को रोखा और दोनों के बीच संघर्ष हुआ। इस संकटपूर्ण स्थिति में जहाँ प्रेम और मर्यादा वश दो महान भक्तों के बीच टकराव हो रहा था अकस्मात भगवान की मधुर वाणी सुनाई दी – “हे मेरे प्रिय रुख जाओ ! संसार को तुम दोनों की भक्ति को दर्शाने के लिए मैंने यह सब किया था।” दोनों ने भगवान को प्रणाम किया। हाथी और रक्षक पुनर जीवित हो गए । स्वछ और सुगंधित मालाएं शिवकामियाण्डार की टोकरी में भर गए। राजकीय हाथी पर नगर में शोभायात्रा ले जाकर राजा ने एरिभक्त की छत्री सेवा की । फिर दोनों ने भगवान कामांतक के मंदिर में पूजा की । इस लोक में जीवन के अंत में एरिभक्त को कैलाश में शिव गण नायक की पदवी मिली। एरिभक्त का साहस, जिस कारण बिना परिणाम के बारे में सोचे उन्होंने शिव भक्तों की रक्षा की, वह हमारे मन में सदैव रहें।   

गुरु पूजा : मासि / हस्तं या कुम्भ / हस्त    

हर हर महादेव 

पेरिय पुराण – एक परिचय

पेरिय पुराण – ६३ नायनमारों का जीवन


 

Related Content

Pictures of Kongunattu Padalpetra Thalangal

கொங்குநாட்டுத் தேவாரம்

Lord Shiva Temples of Karur District (TN)

What Virtue Do I Have to Lodge You!

The History of Pugazh Chozha Nayanar