अपनी तीसरे नेत्र के मात्र क्षणिक उन्मीलन से कामदेव को भस्म करने वाले कामन्तक स्वरूप में शिव तिरुचेन्काट्टाङ्कुडी नामक प्रसिद्ध नगर में विराजमान हैं। उस नगर में एक असाधारण पुरुष का जन्म हुआ - परंज्योतियार। वे आयुर्वेद, संस्कृत और शस्त्र-प्रयोग में पारंगत थे। जैसे-जैसे वे बड़े हए, उन्हे बोध हुआ कि प्रभु के चरणों में ही सम्पूर्ण सृष्टि समाप्त होती है और उनमे ईश्वर के प्रति भक्ति निरंतर विकसित हुई। भगवान के भक्तों की सेवा करते हुए उन्होंने राजा की सेना के सेनापति का पद संभाला। उन्होंने अपने शौर्य, प्रताप और ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए वातापी का युद्ध जीता। जब राजा उनके उत्तम प्रदर्शन की प्रशंसा कर रहे थे, तो मंत्रियों ने उन्हे यह स्मरण कराया कि परंज्योतियार त्रिनेत्र परमेश्वर के भक्त थे और उन्हे कोई परास्त नही कर सकता। राजा को पश्चाताप हुआ कि उन्होंने भगवान चंद्रचूड़ के भक्त को युद्ध भूमि में भेजा था। उनके लौटने पर राजा ने उन्हे अनेक भेंट दिए और भगवान की सेवा करने की अनुमति दी। परंज्योतियार अपने नगर लौट आए और अपना समय गणपतीश्वरम मंदिर में शंकर की सेवा में बिताया। उन्होंने वेंकाट्टु नङ्गै से विवाह किया जो अपने आप में परम शिव भक्त थीं।
प्रतिदिन भोजन ग्रहण करने से पूर्व, परंज्योतियार, पंख, पुष्प और जलधारा से सुसज्जित गंगाधर के भक्तों के लिए भोज का आयोजन करते थे। यह उनका अनुष्ठान था और उनकी आतिथ्य-सत्कार की सभी दिशाओं में प्रसिद्धि थी। भगवान के प्रसिद्ध भक्तों की सेवा करते समय विनम्र होने के कारण, उन्हें सिरुतोंडर (कनिष्ठ सेवक) के नाम से जाना जाने लगा। भगवान की सेवा करते करते उन्हें और उनकी पत्नी को एक पुत्र का आशीर्वाद मिला। उन्होंने उसका नाम चीराल देवर रखा। उनकी तपस्या का फल स्वरूप प्राप्त पुत्र के जन्म का उत्सव मनाने के लिए भक्त ने नगर में एक भव्य उत्सव का आयोजन किया। वेदों की ध्वनि के साथ, उन्होंने नवजात शिशु के लिए सभी जात संस्कार किए और उदारतापूर्वक दान भी किया। बालक को उसके माता-पिता ने बहुत ध्यान से पाला। जब वह तीन वर्ष का हुआ, तो उसे कला सीखने के लिए पाठशाला भेज दिया गया। उस समय, मिथ्या संप्रदायों को मिटाने और शैव धर्म को पुनर स्थापित करने वाले सूर्य, तिरुज्ञान संबन्धर, उस नगर में आए थे। उनके कोमल चरणों को पकड़कर, सिरुतोंडर ने उन्हे प्रणाम किया। बाल संत कुछ दिनों तक उनके घर में रहे और उन्होंने वहाँ गाए गए देवारम में सिरुतोंडर की निष्ठा और सेवा की प्रशंसा की।
भगवान शिव यह प्रदर्शित करना चाहते थे कि महान लोग ऐसे कार्य करने में सक्षम होते हैं, जिनके बारे में सामान्य लोग सोच भी नहीं सकते। उनकी प्रचण्ड जटाओं को एकत्रित बांधकर, माथे पर अर्धचंद्र आभूषण के स्थान पर पवित्र भस्म की अर्धचंद्राकार रेखाएं लगाकर, सर्पों के स्थान पर पुष्पों की बालियाँ पहनकर, कपालों की माला के स्थान पर श्वेत पत्थरों की माला डालकर, हाथी के चर्म के स्थान पर वस्त्र पहनकर, नीले कंठ को छिपाकर, नेत्रों में असीम कृपा लेकर, मंदहास और सुंदर अंगों के साथ, भाला और चरणों में नूपुर धारण किए हुए, सभी को आकर्षित करते हुए, परमेश्वर एक बैरागी के वेश में प्रकट हुए। जो संपूर्ण जगत को भोजन देते हैं, वे भूखे बैरागी के रूप में सिरुतोंडर के घर की दिशा पूछते आए। उस समय घर पर केवल उनकी पत्नी ही थीं। बैरागी ने स्वयं के आने की सूचना दी और पूछा कि क्या वे वास्तव में उस शिव-सेवक के घर आए हैं जो प्रतिदिन भक्तों को भोजन कराते थें। पवित्र तिरुवेंकाट्टुनङ्गैयार बाहर आईं, उन्हें प्रणाम किया और कहा कि उनके पति बाहर गए हैं। उन्होंने बैरागी को घर के अंदर आमंत्रित किया। बैरागी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वे ऐसे घर में नहीं आएंगे जहां स्त्री एकाकी हो। तुरंत ही उस विनम्र स्त्री ने बैरागी से कहा कि चूंकि उस दिन उनके पति को कोई भक्त नहीं मिला था, इसलिए वे किसी भक्त की खोज में गए थे और यदि उन्हें पता चले कि कोई भक्त स्वयं आये थे तो उन्हें बहुत प्रसन्नता होगी। यह कहकर वे अपने घर के आंतरिक भाग में चली गईं और बैरागी से घर के अंदर बैठने का अनुरोध किया। हालाँकि भगवान ने उनके सदाचार पर प्रसन्नता हुई, किन्तु वे भक्त की अनुपस्थिति में घर में प्रवेश नहीं करना चाहते थे और कहा कि वे मंदिर के समीप कठमूली वृक्ष के नीचे उनकी प्रतीक्षा करेंगे।
उस दिन भोजन ग्रहण करने के लिए कोई भी न मिलने से निराश होकर जब सिरुतोंडर घर पहुंचे तो उनकी पत्नी ने उन्हे उत्तर दिशा से आए बैरागी के विषय में बताया, जो मंदिर के समीप वृक्ष के नीचे प्रतीक्षा कर रहे थे। वे बड़े उत्साह के साथ बैरागी के पास गये और उन्हे प्रणाम किया। बैरागी ने पूछा "क्या आप ही वह महान कनिष्ठ सेवक हैं?" विनम्र सेवक ने उत्तर दिया कि यद्यपि वे भक्त के रूप में प्रशंसा के योग्य नहीं थे, तदापि दया के कारण भगवान के भक्त उन्हें इस प्रकार संबोधित करते थें। उन्होंने बैरागी को यह कहते हुए घर आमंत्रित किया कि यह उनके सभी पुण्यों का फल होगा। उत्तर दिशा से आए व्रती ने उन्हें बताया कि जो भोजन वे चाहते थें, उसे बनाना बहुत कठिन था। उनकी आवश्यकता कुछ ऐसी थी - वे चाहते थे कि एक जीवित प्राणी, मनुष्य जिसकी आयु पाँच वर्ष से अधिक न हो, जिसमें कोई शारीरिक कमी न हो, वह परिवार का एकमात्र संतान हो और उसके माता-पिता प्रसन्नता से उसका भोजन पकाएँ! यह सुनकर अद्वितीय भक्त ने उन्हें आश्वस्त किया कि संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे भक्तों के लिए उपलब्ध नहीं किया जा सके। उन्हें प्रणाम करके सिरुतोंडर घर लौटे और अपनी पत्नी को बताया कि बैरागी ने किस प्रकार का भोजन मांगा था। उन दोनों ने मिलकर अपने प्रिय पुत्र को ही भोजन के रूप में परोसने का निर्णय लिया। पिता जाकर उस बालक को पाठशाला से ले आये। उसे स्नान कराया, उसके शरीर को पूर्ण रूप से स्वच्छ किया। प्रसन्न बालक मानो इस महान कार्य का आनंद ले रहा था, माता ने बालक के हाथ-पैर पकड़े और पिता ने अकल्पनीय कार्य किया, उन्होंने पुत्र का शीर्ष काट दिया! उस महान दम्पति को दुःख नहीं हुआ। वे भक्त की सेवा करके प्रसन्न थे। यह सोचकर कि शीर्ष भोज के लिए उपयुक्त नहीं होगा, उसे पृथक रखकर, माता ने अन्य खाद्य पदार्थों के साथ शेष शरीर को पकाया। तब श्रेष्ठ सेवक ने साधू को भोज स्वीकार करने के लिए आमंत्रित किया, और भोज में विलंब के लिए क्षमा मांगी। मृत्यु को पदाघात करने वाले चरणों को धोकर सिरुतोंडर ने उस पवित्र जल को अपने और पूरे घर में छिड़का। धर्मपरायण पत्नी ने चावल, मांस और सभी खाद्य पदार्थों को एक श्वेत वस्त्र पर एक थाली में परोसा। व्रती ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने बालक के सभी अंग पकाए थें। उन्होंने कहा शीर्ष के अतिरिक्त सभी अंगों को पकाया गया था। किन्तु लीलाप्रिय भगवान ने कहा कि शीर्ष होता तो अच्छा होता। उस अद्भुत दंपति पर व्याकुलता छा गई, किन्तु उनकी सहायिका, चन्दन दादी, आगे आईं और उन्होंने कहा कि उन्होंने शीर्ष को भी पका रखा था, और उन्होंने इसे भी परोसा।
अब भगवान ने सिरुतोंडर को आदेश दिया कि वे उनके साथ भोज में भाग लेने के लिए एक अन्य भक्त को लेकर आए। बहुत खोजने पर भी कोई नहीं मिला। चिंतित सिरुतोंडर से बैरागी ने कहा कि चूंकि वे स्वयं एक अच्छे भक्त थें, इसलिए वे उनके साथ भोजन कर सकते थें। जब सिरुतोंडर अपनी पत्नी द्वारा परोसे गए भोजन को खाने वाले थे, तो बैरागी ने उन्हें रोक दिया और पूछा कि उन्हे इतनी शीघ्रता क्यों थी, जबकि स्वयं उन्होंने, जो छह मासों में एक बार भोजन करते हैं, अभी तक आरंभ नहीं किया। तद्पश्चात उन्होंने सिरुतोंडर को अपने पुत्र को बुलाने के लिए कहा। भक्त ने आश्चर्य से कहा कि उनके पुत्र का कोई उपयोग नही होगा। किन्तु व्रती को उनके पुत्र की उपस्थिति के बिना भोजन करना मान्य नही था। अत्यधिक चिंतित, भक्त बाहर गये और अपने पुत्र को बुलाया। उनकी पत्नी ने भी पुत्र को नाम से पुकारा, "ओह! मेरे प्रिय पुत्र, चीराला! भक्त के साथ भोज करने के लिए शीघ्र आओ!!" ईश्वर की कृपा कैसे काम करती यह कौन जान सकता है !! उनका पुत्र दौड़ता हुआ आया जैसे कि वह पाठशाला से लौट रहा हो। दंपति ने उसे आलिंगन किया, यह सोचकर कि अब वे भक्त द्वारा उनका भोज स्वीकार करने से धन्य हो सकते हैं! जब वे घर के भीतर आए तो वे यह देखकर चौंक गए कि बैरागी के साथ-साथ पका हुआ मांस भी अदृश्य हो गया था। उनकी समस्त चिंताओं को दूर कर, उनके बंधनों को ध्वस्त कर और उनके जन्म के स्रोत को ही समाप्त कर, अदृश्य बैरागी अब हिमालय की पुत्री एवं बालक पुत्र सुंदर स्कन्द सहित वृषभारूढ़ प्रकट हुए। परमेश्वर, उमा और सूरपद्मन का अन्त करने वाले कार्तिकेय ने भक्त, उनकी प्रिय पत्नी और उनके प्रिय पुत्र को आशीर्वाद देते हुए, उन्हें अपने चरणों में स्थान दिया, जो महान कर्मों का अंतिम फल है। सिरुतोंडर के यह अद्भुत समर्पण हमारे मन में सदैव रहें।
गुरु पूजा : चित्रै/ भरणी या मेष / भरणी
हर हर महादेव
See also:
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र