वह क्षेत्र जहाँ कार्तिकेय ने भगवान नीलकंठ की पूजा की थी, तिरु-एरुकत्तम पुलियूर, महान संगीतकार तिरुनीलकण्ठ यालपाण नायनार का जन्म स्थान था। उन्होंने अपने तार वाद्य याल पर पशुओं की ध्वनि, पक्षियों की चहचहाहट, नदियों की लय और पेड़ों के गीतों को सम्मिलित किया था। उन्हें यालपाणर या याल संगीतकार कहा जाता था। उन्होंने उस वाद्य में कुशलता प्राप्त की थी जिसे प्राचीन तमिल साहित्य में श्रेष्ठ वाद्यों में से एक माना जाता है। उनका संगीत उस संगीत प्रेमी मृत्युंजय को समर्पित था। उन्होंने चोल साम्राज्य के कई मंदिरों की यात्रा की और अपने मधुर संगीत से नाद के स्रोत, प्रणव, का अभिषेक किया। तद्पश्चात वे सुंदरेश्वर के अपने राज्य - मदुरै पहुँचे।
अपने वाद्य का समस्वरण कर और अपने मन को तिरु-आलवाय के ईश्वर की असीम कीर्ति पर केंद्रित कर, यालपाणर ने मंदिर के द्वार पर अपने संगीत के बांध के द्वार खोल दिए, जिसमें उस मंदिर के ईश्वर भी बह गए। उन्होंने अद्वितीय दक्षता के साथ समय के अनुकूल धुनें बजाईं। यालपाणर की नाद पूजा से प्रसन्न होकर भगवान ने स्वप्न में नगर के सभी भक्तों को उन्हें गर्भगृह का समक्ष लाने का आदेश दिया। भक्तों द्वारा स्वागत किए जाने पर, याल के स्वामी, संगीत के स्वामी के समक्ष गए। ब्रह्मांड के संगीतकार की सेवा करने के लिए उत्सुक, यालपाणर ने धन्य वाद्य बजाकर आनंदपूर्वक भगवान की पूजा की। भगवान के दिव्य लीलाओं, देवों की स्तुति के मध्य नृत्य, त्रिपुरों का नाश, उनकी उपस्थिति में अज्ञान का विनाश, विष्णु और ब्रह्मा के लिए प्रकाश के अनंत स्तंभ का रूप और भगवान आशुतोष की सरलता पर, जो शरणागत को शीघ्र आशीर्वाद देते हैं, यालपाणर ने अपने वाद्य सकोटयाल के साथ समर्पित किये।
भक्त के समर्पण का आनंद लेते हुए, भगवान के आशीर्वाद से, एक दिव्य वाणी ने वहां उपस्थित भक्तों से एक छोटा सा आसान लगाने के लिए कहा ताकि अद्भुत वाद्य यंत्र पृथ्वी की ठंडक से प्रभावित न हो। भक्तों ने आसान का प्रबन्ध किया जिस पर संगीतकार अपने वाद्य के साथ भगवान शिव की सेवा करने के लिए बैठ गये। तद्पश्चात कई मंदिरों में मेरु को धनुष के रूप में धारण करने वाले ईश्वर की स्तुति करते हुए यालपाणर तिरुवारूर पहुंचे। उन्होंने प्रवेश द्वार पर ईश्वर के अनुग्रह के विषय में गाया, जो एक माँ के स्नेह से भी श्रेष्ठ है, जिसने मृत्यु को भी पादाघात कर शरणागत भक्त को वरदान दिया। भक्ति से पूर्ण उनके मनमोहक संगीत के लिए उन्हें उत्तरी द्वार से मंदिर में जाने दिया गया। उन्होंने तिरुमूलस्थान को प्रणाम किया और भगवान की सेवा की। वे कई दिनों तक आरूर में रहे और कई पवित्र स्थानों की यात्रा कर सीरकालि पहुँचे। अपने ज्ञान की तृष्णा को तृप्त करने हेतु पार्वती-परमेश्वर का आवाहन करने वाले बालक के अद्भुत देवारम से वे प्रभावित हुए। अपनी पत्नी के साथ, वे संबन्धर के शब्दों पर याल बजाते थे। अपने मनमोहक संगीत के माध्यम से भक्ति व्यक्त करने वाले संबन्धर की अपने हृदय में नमन करते हुए, पूर्ण समर्पण के साथ, यालपाणर और उनकी पत्नी संत तिरुज्ञान संबंधर के साथ रहने लगे । वे अपने जीवन के अन्त तक संबंधर के साथ ही रहे। वे संबन्धर के साथ ही परमेश्वर के चरणों में पहुँचे। नादस्वरूप ईश्वर की स्तुति के लिए मधुर संगीत बजाने में नीलकंठ यालपाण नायनार की सेवा, हमारे मन में सदैव रहें।
गुरु पूजा : वैकासी / मूलम या वृषभ / मूला
हर हर महादेव