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मूर्ग्ग नायनार दिव्य चरित्र

पल्लव साम्राज्य अपने विद्वानों के लिए प्रसिद्ध था। इसकी राजधानी कांची अपने संस्थानों के लिए विख्यात थी, जो पूरे भारत से छात्रों को आकर्षित करती थी। उस राज्य में, पाली नदी के उत्तरी तट पर तिरुवेर्काडु नगर है। देवारम में गाए गए इसी नगर में मूर्ग्ग नायनार का जन्म हुआ था। वे एक कृषि परिवार से थे, जो त्रिनेत्र ईश्वर के चरणों की सेवा करते थे।

Murgga Nayanar - The History of Murgga Nayanarबाल्यकाल और युवावस्था में नायनार का सम्पूर्ण ध्यान केवल जगत्पिता पर केंद्रित था और वे भगवान के भक्तों की सेवा करते थे। प्रेम सेवा के रूप में प्रकट होता है। उनका यह नियम था कि शिव भक्तों को भोज परोसने के पश्चात ही वे भोजन करते थे। उनके द्वारा परोसा गया चावल नक्षत्रों से अधिक चमकता था और शुद्ध घी पर्वतों पर हिमनद के समान पिघलता था। प्रतिदिन नगर के सर्वोत्तम तरकारियों का क्रय किया जाता था और जब नायनार उन्हें भक्तों को बड़े प्रेम से परोसते थे तो उनका स्वाद और भी बढ़ जाता था। भक्तों की जो भी अवश्यकताएं होतीं थीं, नायनार को ज्ञात होते ही वे पूर्ण हो जातीं थीं।

मूर्ग्ग नायनार के निर्मल सेवा ने उनके घर में भक्तों की भीड़ लगा दी। वे उनकी निरंतर सेवा करते  रहे और अपनी सम्पूर्ण संपत्ति उसी पर व्यय करते गए। अंत में एक समय ऐसा आया जब उनके पास कुछ भी नहीं बचा। कोई भी सामान्य व्यक्ति, जब उसे सतत कष्ट का सामना करना पड़ता, तो वह अपने संकल्पों को त्याग देता। किन्तु महान व्यक्तियों का गुण यह होता है कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हैं। ऐसे महान लोग इतिहास में प्रकाश स्तंभ बनते हैं जो दिशाहीन जहाजों को बचाते हैं। मूर्ग्ग नायनार को अपने लिए धन की चिंता नहीं थी। उनके लिए धन केवल शिव भक्तों की सेवा के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन था। किन्तु शिव भक्तों के भोजन प्रबन्ध करने के अपने पवित्र कार्य को निरंतर रखने के लिए संसाधनों की कमी से वे  व्याकुल थे। उन्हे उस नगर में धनार्जन के लिए कोई उचित काम नहीं मिल रहा था।

पूर्व मूर्ग्ग नायनार ने द्यूत क्रीडा सीखी थी। कोई दूसरा विकल्प न होने पर उन्होंने सोचा कि भक्तों की सेवा न करने की अपेक्षा द्यूत से धनार्जन उत्तम है। द्यूत से प्राप्त धन से उन्होंने अपनी सेवा निरंतर रखी। वे कई नगरों में गए और वहां भगवान शंकर के मंदिरों में प्रेम से सुगंधित जल अर्पित किया। तिरुकुडन्दै (कुंभकोणम) जाते समय उन्होंने तिरुवारूर में भगवान के दर्शन किए। तिरुकुडन्दै में द्यूत में प्राप्त धन को उन्होंने भगवान का आशीर्वाद माना और उस धन से उन्होंने शिव भक्तों के लिए भोजन का प्रबन्ध किया। द्यूत क्रीडा में वे सदैव पहला दांव हार जाते थे जिससे प्रतिद्वंद्वी को अधिक दांव लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और उसके पश्चात के दांव को जीत कर वे अधिक धन राशि ले जाते थे। वे क्रीडा के नियमों का पालन करने में सख्त थे। वे कभी छल नहीं करते थे। किन्तु यदि कोई और छल करता और धन देने से मना करता तो वे उसे चाकू से मार देते थे। इसलिए उनका नाम नर्सूदर (सिद्धांतवादी आक्षिक) मूर्ग्गर पड़ा।

द्यूत से प्राप्त धन से भक्तों की सेवा अनर्गल रही। जब तक भक्तगण संतुष्ट होकर भोजन नहीं कर लेते, तब तक नायनार भोजन को हाथ नहीं लगाते थे। सभी भक्तों के भोजन कर लेने के पश्चात ही वे अंत में भोजन करते थे। समुद्र की निरंतर लहरों के समान उनकी यह सेवा इस संसार में उनके अंतिम समय तक चलती रही। इस धरती पर जीवन के अंत में वे देवों और गणों के स्वामी शिव के पवित्र चरणों में पहुँचे। कठिन परिस्थितियों में भी सेवा के प्रति मूर्ग्ग नायनार का दृढ़ संकल्प सदैव  मन में बना रहे।

गुरु पूजा : कार्तिकै / मूलम या धनुर / मूला   

हर हर महादेव 

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