माणिक्कवाचकर के मात्र नाम से ही सच्चे भक्तों के हृदय में असीम प्रेम जाग जाता है। वे स्वयं भक्ति का मानवीय स्वरूप थे। भगवान नटराज के दर्शन से उनकी दृढ़ भक्ति की अभिव्यक्ति उनके कोमल हृदय से निरंतर अश्रुओं और शब्दों की धारा के रूप में प्रकट हुई। उन्होंने तमिल जनता की आत्माओं को सर्वोच्च भक्ति के माधुर्य का अनुभव करने के लिए प्रेरित किया। यह महान संत, जिन्होंने इस भूमि के आध्यात्मिक और धार्मिक उत्साह को बढ़ाया, चार समय गुरवर अर्थात धार्मिक गुरुओं में से एक के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
पाण्ड्य साम्राज्य में, जहाँ राजा सौन्दर पाण्ड्य के रूप में स्वयं शिव ने शासन किया था, राजधानी मदुरै के समीप, तिरुवादवूर नगर है। इसी नगर में महान वादवूरर (माणिक्कवाचकर) का जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु तक उन्होंने दर्शन और अन्य शास्त्रों की निपुणता प्राप्त कर ली थी। किन्तु भगवान शिव के प्रति उनका प्रेम और शिवभक्तों के प्रति सेवा-भाव विलक्षण था। मल्लिका (पुष्प) अपनी सुगंध का प्रचार नहीं करती, फिर भी इसके प्रशंसक स्वतः ही इसे अपने शीर्ष पर सजा लेते हैं। इसी प्रकार, पाण्ड्य राजा अरिमर्दन ने वादवूरर की प्रतिभा और अनुशासन को देखते हुए उन्हें अपनी राजसभा में प्रधान मंत्री नियुक्त किया और उन्हें "तेन्नवन ब्रह्मरायण" की उपाधि दी। प्रधान मंत्री ने राज्य, भूमि, जन और उनके मनों को धार्मिक मार्ग पर समृद्धि की ओर कुशलतापूर्वक अग्रसर किया। किन्तु उनका मन निरंतर एक आध्यात्मिक गुरु की खोज में था जो परम सत्य की ओर जाने वाले आनंदमय मार्ग को प्रज्वलित करें।
एक समय, राजा अरिमर्दन ने सुना कि पूर्वी तट पर उच्च श्रेणी के अश्व बिक्री पर थे। उन्होंने अपने प्रधान मंत्री वादवूरर को अश्व क्रय करने के लिए बहुत सारा धन देकर भेजा। मार्ग में, वादवूरर तिरुपेरुनतुरै (अवुडैयार कोयिल) नामक नगर में पहुंचे। वहाँ, एक उद्यान से आती हुई "हर हर" की मधुर ध्वनि उन्होंने सुनी। उनका अस्थिर मन, जो प्रायः सभी दिशाओं में प्रस्तारित रहता था, उन मंत्रों पर केन्द्रित हो गया। उन्हे शीघ्र ही स्वयं का स्मरण न रहा और जैसे लोहे का खंड चुंबक की ओर आकर्षित होता है, वे उन मधुर मंत्रों की ओर चल पड़े। वहाँ उन्होंने भगवान को एक वृक्ष के नीचे शैव गुरु के रूप में बैठे अपने शिष्यों को सत्य समझाते हुए देखा, एक ऐसा अनूठा दर्शन जिसके लिए ऋषि कई जन्मों तक तपस्या करते हैं! जिस गुरु के लिए उनके हृदय में उत्कंठा थी, उन्हे साक्षात अपने समक्ष देखकर उनका मन अभिभूत हो गया। तत क्षण उन्होंने स्वयं को पवित्र गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया और उनसे शिष्य के रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना की। भक्तों के मार्ग में स्वेच्छा से प्रकट होने वाले भगवान ने उन्हें शिवज्ञान (सर्वोच्च ज्ञान) प्रदान किया। सर्वोच्च ज्ञान की इस परम संपदा को प्राप्त कर वादवूरर ने अपनी अवस्था को एक अद्भुत स्तुति के रूप में व्यक्त करते हुए भगवान के अलौकिक चरणों में, अपनी संपत्ति, अपना देह और अपनी आत्मा को उस परम को अर्पित कर दिया। उन्होंने तिरुवाचकम के प्रथम रचना - शिवपुराणम के पहले पद्य को "नमशिवाय वालग" से प्रारंभ किया। अद्वितीय गुरु ने इस गीत को सुनकर उनको "माणिक्क वाचकर" (वह जिनकी वाणी बहुमूल्य माणिक के समान है) की उपाधि दी। तद्पश्चात उन्होंने माणिक्कवाचकर को वहां एक मंदिर बनाने का आदेश दिया और अंतर्धान हो गए। माणिक्कवाचकर ने ममकार और अहंकार के बंधनों को पार कर लिया था। युद्ध हेतु अश्व क्रय करने के लिए जो धन उनके पास था (राजा द्वारा दिए गए), उससे उन्होंने भगवान के लिए एक ऐसा अद्भुत मंदिर बनाया जो परमानन्द के इच्छुक को प्रगति के मार्ग पर शीघ्र अग्रसर करता।
कई दिन बीत गए। राजा ने अपने प्रधानमंत्री के विषय में पता लगाने के लिए कुछ लोगों को भेजा। उनके सेवकों ने लौट कर सारी घटना बतायी। राजा क्रोधित हो गये और उन्होंने वादवूरर को एक कठोर संदेश भेजा और तुरंत अश्वों के साथ आने का आदेश दिया। माणिक्कवाचकर ने तिरुपेरुंतुरै के भगवान के चरणों में शरण ली। भगवान ने उन्हे विश्वास दिलाया कि वे "आवनी मूल" (सिंह मास के मूल नक्षत्र) के दिन अश्व लाएंगे और आश्वासन के प्रतीक के रूप में राजा के लिए एक रत्न भेंट किया। प्रधान मंत्री माणिक्कवाचकर ने राजा को उचित संदेश के साथ रत्न भी भेज दिया। राजा प्रसन्न हुए।
भगवान प्रायः भक्ति में धैर्य और दृढ़ता के महत्व को दिखाने के लिए उत्सुक थे, इसलिए ऐसा हुआ कि निर्धारित "सिंह मूल" से एक दिन पूर्व तक अश्वों का कोई संकेत नहीं था। अधीर राजा क्रोधित हो गये और उन्होंने प्रधान मंत्री को बंदी बना लिया। वादवूरर जानते थे कि जिन भक्तों ने स्वयं को त्रिलोचन भगवान को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया था, वे भगवत कार्य के साधन मात्र थे। उन्होंने "अनरे एन्रन" गाते हुए निष्ठापूर्वक प्रभु से प्रार्थना की। धवल वृषभारूढ भगवान सोमसुंदर ने लीला से समीप के वन में सभी लोमड़ियों को रातों-रात उच्च जाती के अश्वों में परिवर्तित कर दिया और स्वयं एक प्रमुख अश्व व्यापारी के रूप में पहुंचे। राजा को अश्व सौंपते समय व्यापारी ने अच्छे अश्व की पहचान करने पर टिप्पणी की! तद्पश्चात अश्व व्यापारी अपने मार्ग चला गया। उसी रात अश्व पुनः लोमड़ियों में परिवर्तित हो गए और पूरे राजधानी को विध्वंस कर दिया। राजा का क्रोध चरम पर था और उन्होंने अपने सेवकों को आदेश दिया कि माणिक्कवाचकर को वैगै नदी के तपित रेत पर चट्टान से बाँधकर खड़ा किया जाए। उस दीन भक्त को अभी भी अपने भगवान पर पूरा भरोसा था, जिन्होंने अपने भक्त की तृष्णा शांत करने के लिए वैगै नदी का सृजन किया था। उन्होंने अपने गुरु से प्रार्थना की।
पुराण काल में गंगा नदी जब पृथ्वी पर अवतरित हुई तब भगवान शंकर ने गंगा के अभिमान को नष्ट करने हेतु उसे अपनी जटाजूट में बांध लिया था और पुनः भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर एक छोटी सी धारा के रूप में गंगा को पृथ्वी पर अवतरित होने दिया। उन प्रभु की लीला से अब वैगै नदी में बाढ़ आ गई। बाढ़ का जल राजधानी के मार्गों में प्रवाह करने लगा। राजा ने नागरिकों को नदी के तट पर बाँध की ऊंचाई बढ़ाने का आदेश दिया और प्रत्येक नागरिक का इस कार्य में योगदान अनिवार्य कर दिया। उस राज्य में वन्दी नाम की नि:सहाय निर्धन वृद्धा थी, जो अपने सरल मन और सेवा से भक्ति मार्ग का अनुसरण करती थी। अपनी आयु संबंधित दुर्बलता के कारण, वह राजा के आदेश का पालन, अर्थात तटबंध निर्माण में योगदान, में सक्षम नहीं थी। उसे दंडित होने से बचाने के लिए, शिव एक श्रमिक के रूप में प्रकट हुए। वन्दी के चावल के पिंड के प्रतिदान, वे उसकी ओर से तटबंध में योगदान देने के लिए संमत हुए। क्या प्रभु की दिव्य लीला का कोई अंत है! बाँध बनाने के लिए रेत लाने का काम करने के स्थान पर, भोलेनाथ चावल के पिंड ग्रहण कर के निद्रा में लीन हो गए!! इसकी सूचना मिलते ही राजा क्रोधित हो गये और उन्हें एक लाठी से पीटा। आश्चर्य! उस पीड़ा को राजा सहित सभी प्राणियों ने अनुभव किया। नदी की बाढ़ कम हो गई और प्रभु अन्तर्धान हो गए। राजा को भगवान की लीला और संत माणिक्कवाचकर की महिमा का अनुभव हुआ। उन्होंने संत से क्षमा की प्रार्थना की। दयालु माणिक्कवाचकर ने राजा को क्षमादान दे दिया और अनुरोध किया कि उन्हें प्रधान मंत्री के पद से मुक्त कर दिया जाए।
माणिक्कवाचकर ने तिरुपेरुनतुरै, उत्तर कोसमंगै, तिरुवारूर, तिरुविडैमरुदूर, सीरकाली, तिरुवण्णामलै और तिरुक्कलुक्कुन्रम में अद्भुत गीत गाते हुए भगवान के कई मंदिरों की यात्रा की। अंत में, वे तिल्लै (चिदंबरम) के पवित्र मंदिर पहुंचे। जगत के नेत्रों को आह्लादित करने वाला नृत्य करते भगवान नटराज के दर्शन से उन्होंने वह अनुभव किया जो वेदों में कहा गया है - "यहां, इस शरीर में भी, अमृत का अनुभव होता है"। उन्होंने तिल्लै में प्रभु पर कई स्तुति गाए।
श्रीलंका के बौद्धों के एक समूह ने एक समय माणिक्कवाचकर को धार्मिक वाद के लिए चुनौती दी थी। प्रभु की आज्ञा के अनुसार उन्होंने इसे स्वीकार किया। शिव और शैव धर्म पर उठाए गए सभी आपत्तियों का उन्होंने कुशलतापूर्वक प्रतिकार किया। उन्होंने एक मूक कन्या से भगवान शिव की महानता के विषय में गवाया और अपने विरोधियों को स्तंभित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने वहाँ शैव धर्म की महिमा स्थापित की। विरोधियों ने सत्य को समझकर, शैवम के ग्रंथों के अनुसार सर्वोच्च भगवान शंकर की पूजा करना प्रारंभ कर दिया। माणिक्कवाचकर भगवान की सेवा करते रहे। उनका शुद्ध प्रेम, शब्दों के मधु-धारा के रूप में निरंतर भगवान का अभिषेक कर रहा था। प्रभु की इच्छा थी कि ये अद्वितीय रत्नरूपी भजन प्रशंसित हो और भावी पीढ़ियों को प्राप्त हो। इन भजनों की महिमा यह है कि वे कठोर से कठोर हृदय को भी पिघला देने का सामर्थ्य रखतें हैं। भगवान स्वयं एक दिन धन्य संत माणिक्कवाचकर के पास गए, उनसे पूरा तिरुवाचकम गाने के लिए कहा और स्वयं हस्त लिखित किया। उन्होंने आगे उनसे तिल्लै नटराज पर गाए – तिरुक्कोवैयार (भजनों का एक संग्रह) के गीत गाने के लिए कहा। उन्होंने उन्हें भी ताड़ के पत्तों पर लिखा और अपनी मुद्रा लगाई - "माणिक्कवाचक के कहे, तिरुचित्रम्बलम के स्वामी ने लिखे"। उन्होंने इस पांडुलिपि को मंदिर के पवित्र पंचाक्षर सोपान पर रखा और अन्तर्धान हो गए।
शिवम स्वरूप
अगले दिन, तिलै के पुजारी मंदिर के सोपान पर भगवान के मुद्रा सहित पांडुलिपि को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। वे इस विषय को लेकर माणिक्कवाचकर के पास पहुंचे। उन्होंने माणिक्कवाचकर प्रणाम करते हुए उनसे रचनाओं का सार समझाने का अनुरोध किया। वे उन्हें भगवान के कनक-सभा में ले गये और आनंद तांडव करते हुए भगवान के ओर संकेत किया, यह दर्शाते हुए कि प्रभु ही वास्तव में सार थे। उस क्षण एक प्रकाश गर्भगृह में प्रकट हुआ और माणिक्कवाचकर ने उसमें विलीन होकर परम पद को प्राप्त किया। इस महान संत का इतिहास तिरुवादवूर पुराणम और तिरुविलैयाडल पुराणम में वर्णित है। उनकी रचनाएँ तिरुवाचकम और तिरुक्कोवैयार हैं। तिरुवाचकम सरलता और ईश्वर के प्रति प्रेम की गहरी भावना के लिए प्रशंसित है।
गुरु पूजा : आनि / मगम या मिथुन / माघ
हर हर महादेव
See Also:
Manikya Vachaka - Life History in English
1. Life of Manikavasgar as drama
2. Thiruvadhavurp puranam
3. Thiruvilaiyadal puranam
4. Thiruvachakam
5. Thirukkovaiyar
6. Mention of Manivasagar in various thirumurais