तिरुनालैप्पोवार एक महान भक्त थे जिन्होंने अपनी जाति से संबंधित सामाजिक प्रतिबंधों से ऊपर उठकर भगवान के चरण कमलों का परम आनंद प्राप्त किया था। उन्होंने अपने भगवत प्रेम की शक्ति से एक सफल जीवन जीया। यह कोई सामान्य प्रकार का प्रेम नहीं था जो बाधाओं को देखकर क्षीण हो जाता था, बल्कि सर्वशक्तिमान भगवान के लिए शुद्ध, दृढ़ और निश्छल प्रेम था। महान भक्त सुंदर मूर्ति नायनार ने स्वयं को तिरुनालैप्पोवार का सेवक कहा था।
कोल्लीडम नदी के तट पर, जो अपने दोनों किनारों पर झुके हुए कमलों पर अपनी भुजाओं से पानी छिड़कती है, आदनूर गाँव है। उस उर्वर गाँव में एक बस्ती थी जिसने इस जगत को नंदनार नाम का मोती दिया। भगवान शिव के तेजस्वी चरणों के प्रति अटूट प्रेम, अद्वितीय भक्ति और वृत्तिक अनुशासन उनकी अपरिहार्य विशेषताएं थीं। वे निष्कपट भक्त तो भगवान के प्रति केवल प्रेम, भक्ति और समर्पण जानते थे। आडंबर, घमंड और निरर्थक बातें करना जैसे लक्षणों से वे अनजान थे और अपने पारंपरिक व्यवसाय की सीमा में रहकर भगवान की सेवा करते थे। नंदनार पुलैयर (चमार) सामाजिक समूह से थे। वे भगवान की पूजा के समय बजाए जाने वाले ढोलक एवं भेरी बनाने के लिए चर्म और वीणा अथवा याल जैसे संगीत वाद्ययंत्रों के तारों के लिए नसें प्रदान करते थे। यही उनकी प्रभु की सेवा थी जिन भगवान से वेदों के मंत्र दिव्य वीणा की धुन में गूंजते हैं जब सृष्टि की मूल ध्वनि शांत हो जाती हैं। उन्होंने महादेव की पूजा के लिए गोरोचन भी प्रदान किया।
तिरुनालैप्पोवार के मन में भगवान के प्रति असीम प्रेम था, जिसे संभवतः उस प्रेमी के अतिरिक्त कोई भी नहीं समझ सका। उन्हे जहाँ भी मंदिर मिलता, वे उसके बाहर खड़े हो जाते, जाप करते, गाते, नृत्य करते और उस सर्वव्यापी प्रभु की महिमा में आनन्दित होते थे। एक दिन उन्हे तिरुप्पुङ्कूर में शिव के लोकनाथ रूप के दर्शन और सेवा करने की इच्छा हुई। वे मन्दिर के द्वार पर आए, सीधे प्रभु की गर्भगृह के सामने, उन्हे देखने के लिए। सदैव के समान नन्दी भगवान के सामने थे और वे भक्त और भगवान के बीच में आ गये। भगवान आशुतोष ने इस महान भक्त के प्रबल प्रेम को जानकर, नन्दी को थोड़ा हटने की आज्ञा दी ताकि नायनार उन्हें देख सकें। उस विनम्र भक्त के प्रसन्नता की सीमा न रही। उन्होंने प्रणाम किया, भूमि पर गिर कर दंडवत किया। नंदनार तिरुप्पुङ्कूर में भगवान की सेवा करने के लिए उत्सुक थे। मंदिर के आस-पास की दुरवस्था को देखते हुए, उन्होंने उस स्थान को स्वच्छ बनाया और एक अच्छे तालाब की खुदाई अपने हाथ से किया। सेवा पूरी होने पर उन्होंने तिरुप्पुङ्कूर के भगवान की परिक्रमा की और संतुष्ट अपने घर लौट आये।
इस प्रकार तिरुनालैप्पोवार ने भगवान के कई मंदिरों में शिव के दर्शन किए और जो भी सेवा संभव हो सकी, वह भी किया। किन्तु एक इच्छा उनके मन में निरंतर बनी रही – तिल्लै (चिदंबरम) में आनंद तांडव को देखने की। उन्हे रात में निद्रा नहीं आती थी; दिन भर वे इस सोच में डूबे रहते थे कि क्या वे तिल्लै कभी जा पाएंगे? यह चिन्तन उन्हे खाए जाती थी और वे प्रतिदिन यह कहकर स्वयं को सांत्वना देते थे, “मैं कल जाऊंगा”। (“नालैप्पोवान” अर्थात “कल जाऊंगा”। इसलिए उन्हें तिरुनालैप्पोवार के नाम से जाना जाने लगा)। ऐसा लगता था कि वह कल कभी नहीं आएगा और वे इसे अब अधिक सहन नहीं कर पाए। अंत में उन्होंने स्वयं को तिल्लै जाने के लिए उद्यत किया। वे उस पवित्र नगर की सीमा पर पहुँच गए; उन्होंने यज्ञ अग्नि का धुआं देखा और वेदों के उच्चारण की ध्वनि सुनी। उन्हे अपने निम्न वर्ग में जन्म के कारण नगर के पवित्र परिसर में प्रवेश करने में संकोच हो रही थी, इसलिए उन्होंने कई बार नगर की परिक्रमा की और थकान के कारण वहीं सीमा पर सो गए। अब भगवान, जो भक्तों के पास स्वयं आते है उन्हे लेने, अपने सच्चे भक्त की इस दशा को सहन नहीं कर सके कि वे भक्त नगर के बाहर आतुरता से उनके नृत्य को देखने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। वे तिरुनालैप्पोवार के स्वप्न में आये और उनसे कहा कि - “इस जन्म से मुक्त होकर अग्नि के माध्यम से मेरे पवित्र स्थान में प्रवेश करो।”
भगवान तिल्लै के ब्राह्मणों के स्वप्न में भी प्रकट हुए और उन्हें अपने भक्त तिरुनालैप्पोवार के लिए शास्त्रों के अनुसार अग्नि प्रज्वलित करने का निर्देश दिया। अगले दिन ब्राह्मण भगवान के आदेश के अनुसार पवित्र अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए नंदनार के पास आए। अपने भाग्य को धन्य मान कर, भगवान के उस उत्कृष्ट भक्त, जिनका प्रेम किसी भी अग्नि से नहीं जल सकता था, सबसे पवित्र वस्तु – भगवान के रमणीय चरणों की प्रशंसा करते हुए अग्नि की लपटों में प्रवेश कर गये। देवताओं द्वारा फूलों की वर्षा के बीच, तिल्लै के ब्राह्मणों के अभिवादन के साथ और इकट्ठे हुए भक्तों के हर्षोल्लास के मध्य, भगवान के सभी पवित्र प्रतीकों से सुशोभित एक ऋषि के प्रकाशमान शरीर में, नंदनार अग्नि से प्रकट हुए, उन ब्रह्मांड के नर्तक नटराज की पूजा करने। अपने साथ आए ब्राह्मणों के साथ, उन्होंने भगवान के मंदिर के गोपुर को प्रणाम किया और शीघ्रता से गर्भगृह मे प्रवेश कर गए। इकट्ठे हुए सभी लोगों ने बस उन्हे ब्रह्मांड के नर्तक के गर्भगृह में प्रवेश करते देखा, किन्तु जब उन्होंने भीतर देखा तो उन्हें केवल नटराज का विग्रह दिखाई दिया। तिरुनालैप्पोवार नायनार की शुद्ध अद्भुत भक्ति, जो बाधाओं के पहाड़ को पार करके भगवान तक पहुंची, हमारे मन में सदैव बनी रहे।
गुरु पूजा : पुरट्टअसी / रोहिणी या कन्या / रोहिणी
हर हर महादेव
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र