एक दिन आरुरर ने तिरुवारूर के तालाब से उस स्वर्ण लेने के लिए परवैयार को बुलाया, जिसे भगवान ने तिरुमुदुकुन्रम के नदी में बहाया था। नदी में गिराये स्वर्ण को तालाब में प्राप्त करने की कल्पना ही परवैयार को हास्यास्पद लगी! आरूरर उन्हे मंदिर के तालाब में ले गये और स्वर्ण की खोज करने लगे। बहुत समय तक उन्हे कुछ नहीं मिला। तब उन्होंने तिरुमुदुकुन्रम के भगवान से स्वर्ण की प्रार्थना करते हुए एक देवारम गाया। उनकी कृपा वे १२,000 स्वर्ण मुद्राएं पुनः प्राप्त हुए और संसार आश्चर्यचकित रह गया! उन्होंने भगवान का आभार प्रकट किया और उनकी असीम दया की प्रशंसा करते हुए वे कुछ समय तिरुवारूर में ही रहे।
कुछ समय पश्चात, आरूरर ने तीर्थयात्रा प्रारंभ की, इस बार वे नल्लारु, तिरुकडवूर तिरुमयानम, तिरुकडवूर तिरुवीरट्टानम, वलम्पुरम, तिरुचायक्काडु, वेंकाडु, ननीपल्ली, तिरुचेम्पोनपल्ली, तिरुनिन्रियूर, नीडूर, तिरुप्पुङ्कूर और तिरुक्कोलक्का में भगवान को नमस्कार करते हुए, कुरुकावूर की ओर बढ़े। मार्ग में उन्हें थकान, प्यास और भूख का अनुभव हुआ। अपने भक्तों के लिए माता से बढ़कर, भगवान शिव एक बूढ़े ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने मार्ग में एक जल आश्रय स्थापित किया। उन्होंने नम्बि का स्वागत किया।नम्बि ने "शिवाय नमः" के साथ उनका अभिवादन किया। उन्हें और उनके साथ आए भक्तों को चावल के पिंड और शीत जल बूढ़े ब्राह्मण ने दिया। सांसारिक सुखों के कठिन जंजाल को पार कर प्रभु की ओर अग्रसर भक्तों पर शंकर की मधुर कृपा रूपी चावल और जल का आनंद लेते हुए, वे भक्त कुछ समय के लिए निद्रा में लीन हुए। इस बीच भगवान जल आश्रय के साथ अदृश्य हो गए। जब आरूरर जागे तो उन्हें अनुभव हुआ कि वे प्रभु ही थे, जिन्हें वैदिक अनुष्ठानों में प्रथम आहुति दी जाती है, जिन्होंने उन्हें शुद्ध भोजन और जल प्रदान किया था। अपनी कृतज्ञता के रूप में, उन्होंने कुरुकावूर के भगवान के लिए एक देवारम अर्पित किया।
सुन्दरर कलिप्पालै, तिलै, तिरुतिनै नगर और तिरुनावलूर के पवित्र स्थलों की यात्रा करके तोंडै नाडु पहुँचे। उन्होंने तिरुकलुकुन्रम में भगवान की पूजा की और तिरुकचूर पहुँचे। उस मंदिर में प्रेम के साथ भगवान की पूजा करते हुए, उन्होंने अपने भगवत-दर्शन की भूख को तृप्त कर लिया किन्तु अब उनकी शारीरिक भूख अपने चरम पर थी। कैलाश पर्वत पर रहने वाले “पशुओं” के कष्टों का निवारण करने वाले महा भेषज, अपने प्रिय भक्त की थकान और भूख को मिटाने हाथ में कटोरा लेकर तुरंत पहुँचे। सुंदरर के लिए भोजन हेतु भिक्षा माँगने के लिए तत्पर हुए। प्राचीन काल में दारुकावन के ऋषियों की अज्ञानता को दूर करने के लिए भिक्षा माँगते भिक्षुक के रूप में प्रकट हुए भगवान, आज अपने भक्त की भूख को शांत करने के लिए भिक्षा माँगने गए। वे आरुरर के लिए पर्याप्त भोजन लाए, यद्यपि भगवान की कृपा प्रशंसा की सीमाओं से परे थी, तथापि सुन्दरर ने पूरी विनम्रता से देवारम के मध्यम से उनकी स्तुति की और प्रणाम किया।
सुंदरर कांची नगर पहुंचे और वहां के कई मंदिरों में भगवान के दर्शन किये और तिरुएकम्बम, तिरुकामकोट्टम, तिरुमेत्रली, ओनाकांतंतली और अनेकतांगपदम में देवारम गाए। उन्होंने वनपार्थान पणंकाट्टूर, तिरुमारपेरु, तिरुवल्लम और श्रीकालहस्ती की यात्रा की। श्रीकालहस्ती से उन्होंने इंद्रनील पर्वत और केदारनाथ में निवास करते भगवान के विषय में देवारम गाये। निकट के कई मंदिरों के दर्शन करते हुए वे भक्तों के भव्य स्वागत के मध्य तिरुवोट्रियूर पहुंचे। वे तिरुवोट्रियूर के भगवान को प्रणाम करते हुए कुछ दिन वहीं रुके।
कैलाश घटना क्रम में देवी पार्वती की दूसरी परिचारिका अनिन्तितैयार ने एक किसान, तिरुन्यायिरु किलवर की पुत्री संगिलीयार के रूप में जन्म लिया था। लावण्य और उत्तम चरित्र से परिपूर्ण, वे सदैव जगन्माता और उनके पति परमपीता की सेवा में थी। जब उनके माता-पिता ने एक उपयुक्त वर की खोज करने का प्रयत्न किया, तो उन्होंने यह कहते हुए विवाह को अस्वीकार कर दिया कि वे केवल तिरुवोट्रियूर में प्रभु की सेवा करना चाहती थी। यदि कोई भी उनके लिए विवाह का प्रस्ताव भेजता, तो उनके साथ बुरा होता। इससे उनके बंधुजन डर गए और उन्होंने संगिलीयार की इच्छा अनुसार तिरुवोट्रियूर में भगवान की सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करने दिया। मंदिर के पुष्प मंडप में स्थित मठ में, उन्होंने माला और अन्य पुष्पों के आभरण बनाकर भगवान की सेवा की।
एक दिन जब वन्तोंडर महेश्वर की पूजा करके पुष्प मंडप से बाहर निकले, तो उन्होंने संयोग से संगिलीयार को देखा, जिन्होंने भगवान के लिए बनाई गई मालाओं को सौंपने के लिए मठ के आवरण को क्षण भर के लिए हटा दिया था। पूर्व संबंध की वासना ने उनके पवित्र मन को विचलित किया और उनका हृदय खो गया। हमारे प्रभु के मित्र ने उमापति से विनती की। तब भगवान उनकी ओर से विवाह का प्रस्ताव लेकर संगीलियार के पास गए। संगीलियार ने इस अनुबंध के साथ प्रस्ताव स्वीकार किया कि आरुरर उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। भगवान ने संगिलीयार की स्वीकृति और उनकी रखी गई अनुबंध से सुंदरर को अवगत कराया। आरुरर को संकोच हुआ क्यों कि वे मंदिरों में देवारम गाकर भगवान की सेवा करने के लिए उत्सुक थे और वे तिरुवोट्रियूर में स्थायी रूप से रहने के इच्छुक नहीं थे। इसलिए, उन्होंने भगवान के साथ एक गुप्त समझौता किया कि जब वे संगिलीयार के साथ मंदिर में विवाह संकल्प लेने के लिए आएंगे तो प्रभु मंदिर की वेदी के बाहर निकल कर बकुल वृक्ष के नीचे रहेंगे। भगवान ने स्वीकार किया। प्रभु तद्पश्चात महान संगिलीयार के पास गए, वन्तोंडर के उद्देश्य से परिचित किया और उन्हे सावधान किया कि वे मंदिर की वेदी में नही अपितु बकुल वृक्ष के नीचे संकल्प लेने के लिए कहें। उन पवित्र युवती ने भगवान का आभार प्रकट किया।
अगले दिन प्रात:काल नावलूरर संगिलीयार के समीप संकल्प लेने और उनसे विवाह करने के लिए आये। संगिलीयार ने अपनी सखियों के मध्यम से सुंदरर को बताया कि उन्हे बकुल वृक्ष के नीचे संकल्प लेना होगा। सुंदरर अचंभित रह गये किन्तु उन्हे वृक्ष के नीचे संकल्प लेना पड़ा जहाँ पूर्व आश्वासन के अनुसार प्रभु स्वयं उपस्थित थे! संगिलीयार संकल्प से संतुष्ट थी, किन्तु अपनी इच्छा के विरुद्ध आरुरर को बांध रखने से दुखी भी थी। पर वह तो भगवान का आदेश था। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और चले गए। उसी रात भगवान ने नगर के भक्तों से सुंदरर और संगिलीयार का विवाह तय करने के लिए कहा। उनकी कृपा से विवाह संपन्न हुआ। तम्पिरान तोलर लंबे समय तक संगिलीयार के प्रेम की छाया में तिरुवोट्रियूर के भगवान की सेवा करते रहे।
गुरु पूजा : आडि / स्वाती या कर्क / स्वाती
हर हर महादेव
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63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र