सनातन धर्म के सभी मार्गों के अंतिम गंतव्य, भगवान शिव, ने सदैव ही अन्य धर्मों के भक्तों को आकर्षित किया है। ६३ महान भक्तों में से ऐसे एक भक्त का उल्लेख है जो बौद्ध (शाक्य) थे। जो लोग सत्यान्वेषण करते हैं, चाहे वे आरंभ में किसी भी धर्म का पालन करते हों, अंततः उस अंतिम पथ पर पहुँच ही जाते हैं जो परम शिव की ओर ले जाता है।
जहाँ के लोग धरती माता के समान उदार थे, उस तिरुचंग मंगै नगर में शाक्य नायनार का जन्म एक कृषि परिवार में हुआ था। उन्होंने कई दर्शनशास्त्रों की शिक्षा ली, विवाद या निक्षिप्तवाद के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज के लिए। वे इस संसार के सभी प्राणियों से प्रेम करते थे। उन्होंने इस संसार-सागर से बाहर आने का दृढ़ निश्चय किया था। सत्य की खोज में वे विद्वानों और ज्ञान के केंद्र कांची नगर पहुँचे। बौद्ध धर्म को स्वीकार करके उन्होंने बौद्ध धर्म और अन्य धर्मों के सिद्धांतों को सीखा। उन्होंने उस धर्म और अन्य धर्मों के शास्त्रों का अध्ययन किया। उन्होंने सत्य की खोज में निष्पक्ष दृष्टिकोण से उनका विश्लेषण किया। यदि लोग अपनी खोज में सच्चे और निष्ठ हो तो भगवान सदैव उन्हे सही मार्ग पर ले जाते हैं। भगवत कृपा से, नायनार स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि शिव ही परम सत्य है।
शाक्य नायनार का कहना था कि, "चार मूल तत्व हैं - कर्म, कर्ता, परिणाम और परिणाम के नियंत्रक। केवल शैव धर्म ही इन सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से समझाता है और शिव ही सत्य हैं"। उनका निष्कर्ष उनके अपने विश्लेषण पर आधारित था और इसलिए संदेह से परे था। उनका मानना था, "कोई भी स्थिति या वेशभूषा हो, उचित कार्य एक ही है - शंकर के पवित्र चरणों का निरंतर स्मरण ।" उन्होंने बौद्ध भिक्षु के अपने रूप को परिवर्तित नही किया और वे सदैव हृदय में भगवान शिव के चरणों की स्मृति के परमानन्द में रहते थे।
शिवलिंग, भगवान के साकार और निराकार, दोनों रूपों का प्रतिनिधित्व करता हैं। शिवलिंग तब प्रकट हुआ जब विष्णु और ब्रह्मा के बीच इस बात पर विवाद हुआ कि कौन श्रेष्ठ है। न तो ब्रह्मा और न ही विष्णु शिवलिंग का आदि या अंत को पा सके। इस प्रकार, यह अथाह अद्वितीय और अवर्णनीय सर्वशक्तिमान का प्रतीक है। इन सूक्ष्मताओं को समझते हुए, नायनार एक दिन शिवलिंग के दर्शन करने गए। जैसे ही उनकी दृष्टि इस निराकार रूप पर पड़ी, उनकी आंखें विस्तृत हो गईं और वे संसार को भूल गए। उनका हृदय, अग्नि को देखते ही लाक्ष के समान, पिघल गया और उनके नेत्रों से आनंद के अश्रु प्रवाहित होने लगे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें! उन्होंने एक पत्थर उठाया और असीम भक्ति के साथ भगवान पर फेंका। भगवान अपने भक्त के इस भक्तिपूर्ण कार्य से प्रसन्न हुए। यह समझकर कि यह भगवान का आशीर्वाद ही है, उन्होंने पत्थर फेंकने को भागवत सेवा के रूप में अपना लिया। उस दिन से वे बौद्ध भिक्षु के वेश में शिवलिंग पर पत्थर फेंकते और भगवान की पूजा करते।
(क्या भगवान पर पत्थर फेंकना और पूजा करना सही है? क्या इससे गलत व्याख्याएं नहीं होंगी? फिर भगवान ने ऐसी पूजा कैसे स्वीकार कर ली? ये वे पत्थर नहीं थे जिन्हें प्रभु ने स्वीकार किया था। जिस कार्य को उन्होंने स्वीकार किया उसके पीछे उनकी भक्ति ही थी। इसलिए कोई यह तर्क नहीं दे सकता कि, "मैं भी पत्थर फेंकूंगा और इसे पूजा कहूंगा"। चाहे वह शाक्य नायनार पत्थर फेंकना हो या कन्नप्प नायनार द्वारा शिवलिंगम के सिर पर जूते रखना हो, यह कार्य नहीं बल्कि प्रेम की अकल्पनीय चोटियाँ थीं जिन्हें भगवान ने दोषरहित स्वीकार किया था। अन्य लोग केवल पत्थर देखते हैं, लेकिन हारा उसे फूल के रूप में लेता है।)
एक दिन शाक्य नायनार पत्थर के साथ पूजा का अपना कर्तव्य भूल गए और भोजन करने चले गए। शीघ्र ही उन्हें यह अनुभूति हुई, "ओह! मैं अपने प्रेम को कैसे भूल गया? मैं उनकी पूजा किए बिना कैसे भोजन कर सकता हूँ?" वे त्रिनेत्र भगवान के मंदिर की ओर दौड़े। उन्होंने एक पत्थर लिया और उसे भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया। भगवान की निरंतर सेवा करने की व्याकुलता में अपना भोजन तक को विस्मृत करने वाले भक्त को आशीर्वाद देने के लिए, शंभु, देवी के साथ वृषभारूढ़ क्षितिज पर प्रकट हुए। भक्त ने अपने शीर्ष पर हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति की। भगवान ने उन्हें शिवलोक में अपने सेवकों के मध्य प्रतिष्ठित स्थान प्रदान किया। शाक्य नायनार के मन में परमसत्य की खोज और भगवान के प्रति असीमित प्रेम हमारे मन में सदैव रहें।
गुरु पूजा : मार्गलि / पूराडम या धनुर / पूर्व आषाढ़ा
हर हर महादेव
See also:
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र