सेन्दनार उन नौ भक्तों में से एक हैं जिन्होंने नौवें तिरुमुरै - दिव्य तिरुविसैपा के पदिगम गाए हैं। उनकी रचनाएँ तिरुविसैपा के दूसरे भाग में अंकित हैं। वे पट्टिनत्तु अडिकल के मुंशी थे। (इतिहास में सेन्दन नाम के कई लोग हुए हैं। कोवै तुडीचैकिलार विली सेन्दनार को तिरुविसैपा के रचनाकार और नांगूर सेन्दनार को तिरुप्पलाण्डु के रचनाकार मानते हैं। एक अन्य सेन्दनार की पहचान दिवाकरम सेवित सेन्दनार के रूप में हुई जो अंबर में रहते थे। एक सेन्दनार को व्याकरण ग्रंथ वीर चोलियम में प्रशंसित किया गया है और वे एक बौद्ध थे।) सेन्दनार तिरुवेंकाडु के समीप नांगूर नगर से थे। (कुछ लोग कहते हैं कि वे सेप्पुरै नामक नगर से थे)।
एक समय सेन्दनार ने पट्टिनतार द्वारा रक्षित धनकोष को जनता के लिए खोल दिया। पट्टिनतार के बंधुजनों के कहने पर चोल राजा ने सेन्दनार को बंधी बना लिया। पट्टिनतार ने भगवान से प्रार्थना की और सेन्दनार को मुक्त करवाया। तद्पश्चात सेन्दनार अपनी पत्नी और परिवार सहित चिदंबरम चले गए। उन्होंने लकड़ी काटकर जीविका चलायी। अल्प साधन होते हुए भी, सेन्दनार प्रतिदिन भगवान के एक भक्त को भोजन प्रदान करते थे। प्रभु जो अपने भक्तों की निष्ठा और प्रेम का आनंद लेते हैं, एक दिन भक्त के रूप में उनके द्वारा अर्पित पके अनाज के गोले (कली) खाने के लिए आए। संसार को इस भक्त की महानता दिखने हेतु भगवान ने उस भोजन के अवशेषों को अपने पवित्र रूप पर छोड़ दिया।
एक बार तिलै मंदिर में आरुद्र उत्सव के समय, जब रथ आगे नही बढ़ रहा था, तो सेन्दनार ने तिरुप्पलाण्डु गाया। रथ न केवल चला अपितु किसी के स्पर्श के बिना अपने यथास्थान तक पहुंच गया! उन्होंने तिरुविडैकली में एक मठ की स्थापना की और वहाँ भगवान मुरुगन की पूजा करते रहे। ऐसा कहा जाता है कि राजा ने उनके मठ के लिए भूमि दान की थी जिसे सेन्द मंगलम कहा जाता था। तिरुविडैकली पुराण में उल्लेख है कि सेन्दनार ने तैपूसम के दिन भगवान के चरणों को प्राप्त किया। इस धन्य भक्त ने तिरुप्पलाण्डु को गाया है, जो तिरुमुरै के विशाल महासागर में मात्र १३ पदों का एक छोटा सा गीत होने पर भी सदैव पंच पुराण में गाया जाता है। सेन्दनार ने तिरुविलिमिललै, तिरुवावडुतुरै और तिरुविडैकली पर तिरुविसैपा की रचना की है।
हर हर महादेव
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