पांड्य वंश के राजा तमिल के संरक्षण और विकास के लिए आयोजित तमिल संगमों के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी राजधानी मदुरै अपनी विशाल भवनों और समृद्धि के लिए विख्यात थी। इसी पुरातन नगरी के केंद्र में सुंदरेश्वर का विशाल मंदिर है, जो तमिल संगम का पीठ माना जाता था।
उस भव्य नगर के व्यापारी कुल में एक अद्भुत भक्त मूर्ति नायनार का जन्म हुआ। अभिषेकप्रिय भगवान शिव के लिए वे प्रतिदिन बिना किसी अवरोध के चंदन का लेप अर्पित करते थे। एक समय कर्नाटक के राजा ने अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ मदुरै पर आक्रमण किया। युद्ध में पांड्य राजा को मार डाला और राज्य को अपने अधिकार में ले लिया। राजा जैन धर्म का पालन करता था और अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु था। उसने भगवान शिव के भक्तों को प्रताड़ित किया। यद्यपि दुष्ट राजा ने चंदन प्राप्ति में कठिन बाधाएं खड़ी की, तदापि मूर्ति नायनार बिना किसी रुकावट के सेवा करते रहे। भक्त के दृढ़ संकल्प और समर्पण ने राजा के हर दुष्कृत्य पर विजय पा ली। इससे क्रोधित होकर राजा ने, चंदन का लेप प्राप्त करने का प्रत्येक मार्ग बंद कर दिया। अब, मूर्ति नायनार को सेवा के लिए आवश्यक चंदन का लेप नहीं मिला। निराशा को लांघकर भगवान की सेवा करने का दृढ़ संकल्प रखते हुए, उन्होंने अपने स्वयं के हाथ को पत्थर पर पीसना प्रारंभ कर दिया । त्वचा छिल गई, हड्डियाँ और नसें बाहर निकाल आईं। उनके हृदय के प्रेम के प्रवाह के समान अब उनका रक्त बह रहा था, फिर भी वे नहीं रुके। क्या वे अपने पुनर्जन्म के स्रोत को ही पीस रहे थे? भगवान यह देखकर सहन नहीं कर पाए, उन्होंने अपने भक्त को पुकारा, "पर्याप्त है! दृढ़ संकल्प और प्रेम के कारण तुमने यह किया, किन्तु आगे मत बढ़ो! जो राजा इन कष्टों का मूल है वह शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। तत्पश्चात तुम राज्य पर शासन करो और मेरे निवास आ जाओ"। आश्चर्यचकित होकर मूर्ति नायनार उठ खड़े हुए। जैसे परमानन्द की उपस्थिति में दुख ओझल हो जाते हैं, उनके घाव और पीड़ा मिट गए और वे सूर्य के समान प्रकाशमान हो गये।
वह राजा जो कभी भक्ति नहीं जान पाया, मृत्यु को प्राप्त हो गया और वह अपने कर्म के अनुसार नर्क में पहुँच गया। राजा बिना कोई उत्तराधिकारी छोड़े चल बसा था इसलिए मंत्री चिंतित थे। उन्होंने नए राजा का चयन करने के लिए एक हाथी को माला के साथ भेजने का निर्णय लिया। हाथी की पूजा की गई और उसकी आँखें बाँधकर उसे नगर में छोड़ दिया गया। वह नगर में घूमता हुआ मन्दिर की गोपुर के पास आया। इस बीच मूर्ति नायनार ने भगवान के आदेश का पालन करते हुए राज्य के शासन का उतरदायित्व सेवा के रूप में लेने का निर्णय लिया। वे मन्दिर से बाहर आए और गोपुर के पास खड़े हो गये। वह क्षण काव्यात्मक चित्र के समान था जब राजसी हाथी ने मूर्ति नायनार का अभिवन्दन किया, उन्हे माला पहनाई और उन्हे, जिनके शीर्ष पर भगवान के चरण थे, अपने पीठ पर बिठाया। पूरा नगर आनंद से झूम उठा और वाद्ययंत्रों की ध्वनि लोगों की प्रसन्नता का बखान कर रही थी। जैसे पर्वत पर उदय होता सूर्य रात के अंधेरे को दूर कर देता है, वैसे ही मूर्ति नायनार के हाथी पर चढ़ने से लोगों के मन से भय दूर हो गया। हर्षोल्लासपूर्वक शोभायात्रा राजमहल पहुंचा।
मूर्ति नायनार ने मंत्रियों और सभासद के समक्ष घोषणा की, "यदि शैव धर्म का प्रचार हो, तो मैं इस देश के शासन का भार उठाने के लिए उद्यत हूँ"। सभी ने इसे वरदान के रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने आगे कहा कि अगर वे राजा बने, तो वे केवल पवित्र भस्म से अभिषेक करना स्वीकार करेंगे, रुद्राक्ष ही उनके आभूषण होंगे और उनकी जटा ही राजमुकुट होगा। भौतिक संसार का सौन्दर्य कभी भी सच्चे भक्तों को आकर्षित नहीं करता है। जब उनके हृदय परम आनंद का भोग पहले से ही कर चुका था, वे क्षणिक सुखों के मधुपान को क्यों ग्रहण करें? उन्होंने भगवान की नित्य पूजा की और लोगों के हृदयों को प्रकाशित करते शैव धर्म के साथ राज्य पर शासन किया। चूंकि उन्होंने पवित्र भस्म, रुद्राक्ष और जटा के साथ शासन किया था, इसलिए उनको मुम्मैयाल उलकांड मूर्तियार (वे मूर्ति जिन्होंने शैव धर्म के तीन पवित्र प्रतीकों के साथ शासन किया था) के नाम से जाना जाता है। अपने समय के पश्चात उन्होंने अपने उत्तराधिकारी को राज्य दे दिया और सर्वशक्तिमान भगवान के सुगंधित चंदन समान चरणों को प्राप्त किया। भगवान की सेवा करने में मूर्ति नायनार का दृढ़ संकल्प, राजा बनने पर भी उनकी सादगी और मन की समता हमारे मन में सदैव बनी रहे।
गुरु पूजा : आड़ी / कृतिकै या कटक / कृतिका
हर हर महादेव
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र