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चण्डेश (चण्डिकेश्वर) नायनार दिव्य चरित्र

शैव ग्रंथों में भगवान शिव के पच्चीस मूर्तियों की प्रशंसा की गई है। इनमेसे चण्डेशानुग्रह मूर्ति एक है। यह भगवान का चण्डेश नायनार को उनके महान कार्य के लिए आशीर्वाद देने का रूप है। वास्तव में, चण्डेश नायनार आज भी सभी शिव मंदिरों और उत्सवों में पूजे जाने वाले देवताओं के पंथ में से एक है (अन्य हैं – गणपति, कार्तिकेय, सोमास्कंध और शक्ति)। सभी मंदिरों में चण्डेश नायनार का विग्रह वहाँ रखा जाता है जहाँ भगवान का अभिषेक जल बाहर निकलता है। पूजा के बाद, मंदिर से निर्गत होने से पूर्व कोई भी प्रसाद (भगवान को चढ़ाए गए नैवेद्य का अवशेष) ले जाने के लिए चण्डेश नायनार से अनुमति लेने की प्रथा है। बारह शैव ग्रंथों – तिरुमुरै, में कई स्थानों पर इनकी प्रशंसा की गई है। अल्प आयु में उन्होंने जो महान कार्य किया, वह नैतिकता का आदर्श माना गया है। भक्ति के इस श्रेष्ठ उदाहरण के बारे में लिखना, एक निरक्षर को परिष्कृत साहित्य की व्याख्या करने के समान है!

Chandesha Nayanar - The History of Chandesha Nayanar
उनके हृदय में पशुपति के प्रति जो प्रेम अनंत काल तक बहता रहा, उसे चण्डेश ने शिवलिंग पर दूध के रूप में प्रवाहित कर दिये! 

चोल राज्य की भूमि में, मन्नी नदी के तट पर, तिरु-सेयज्ञलूर नामक का एक नगर था। पुराणों के अनुसार,  भगवान कार्तिकेय ने इस नगर का निर्माण किया था जब उन्होंने अपने वेल (भाला) से क्रौंच पर्वत को वेधा था। इस नगर में वेदों में पारंगत ब्राह्मणों का विशाल समुदाय था। वैदिक पाठशालाओं से वेदघोष गूंजता था जहाँ युवा विद्यार्थी अपने गुरु के चारों ओर चंद्रमा के चारों ओर नक्षत्र के समान बैठते थे और मंत्रोच्चार के लिए निर्धारित प्रबंध का अनुसरण करते हुए पवित्र वेदों का जाप करते थे। नगर में प्रचुर मात्रा में गायें थी, जो पूजा और अनुष्ठानों में उपयोग किए जाने वाले पांच विशेष पदार्थ (पंचगव्य) देती थीं। जैसे संगीत अच्छी राग का प्रतिफल है, मधुर स्वाद अच्छे दूध का प्रतिफल है, प्रकाशमान दृष्टि आंख का प्रतिफल है, पांच अक्षरों चिंतन पवित्र का प्रतिफल है, वर्षा आकाश का उपहार है और शैवमत वेदों का फल है, वैसे ही सेयज्ञलूर नगर उदार धरती की भेंट थी। यह उन पाँच नगरों में से एक था जहाँ चोल राजा अपना राज्याभिषेक किया करते थे।

उस नगर के ब्राह्मणों में से एक कश्यप गोत्र के यज्ञ दत्त थे। जिस प्रकार साँप मणि और विष दोनों धारण करता है, उसी प्रकार उनके कर्म अच्छे और बुरे दोनों थे। उनकी पत्नी एक अच्छे परिवार से थीं, हृदय से पवित्र थीं और वे ऐसे पुत्र की माता थी जिन्हे शाश्वत प्रसिद्धि का वर था। शैवम के सत्य के प्रचार के लिए, विचार शर्मा    नाम के एक बालक का जन्म हुआ। पाँच वर्ष की अल्पायु में, भगवान की कृपा और अपने पिछले जन्म के प्रयासों से वे शिवागम, वेद और वेदांगों में पारंगत हो गए थे। जब वे सात वर्ष के थे तो उनके पिता ने उनका उपनयन संस्कार कराया। आस-पास के सभी लोगों को आश्चर्य हुआ कि इतनी अल्प आयु में वे पहले से ही सभी कुछ जानते थे। किन्तु संप्रदाय को ध्यान में रखते हुए, वे वैदिक पाठशाला में प्रविष्ट हुए। उस कम आयु में, सारे शास्त्रों के ज्ञानी विचार शर्मा को इस सत्य का अनुभव हुआ कि, “भगवान नटराज ही हमारे स्वामी हैं और अंतिम लक्ष्य उनके चरण कमल हैं"। इस अनुभव ने भगवान के प्रति उनके प्रेम को कई गुना बढ़ा दिया एवं उनके भक्ति को और गहन बना दिया।

एक दिन उन्होंने एक चरवाहा को एक गाय को भारी डंडे से मारते हुए देखा। उनका करुणामय हृदय यह सहन न कर सका। गाय को श्रेष्ठ प्राणी माना जाता है। उनमें समस्त पवित्र नदी निवास करते हैं। वे भगवान का अभिषेक करने के लिए पांच पवित्र पदार्थ देते हैं। वे पवित्र भस्म बनाने के लिए सामग्री प्रदान करते हैं। वे भगवान के वाहन वृषभ के उपजाति के पशु हैं। इस प्रकार गायों की महिमा के बारे में सोचते हुए उन्होंने चरवाहे से कहा कि अब से वे उन गायों की देखभाल का दायित्व लेंगे। वे प्रतिदिन प्रातःकाल गायों को उन स्थानों पर ले जाते थे जहाँ उन्हें चरने के लिए पर्याप्त घास मिलती थी। जब उनका पेट भर जाता और उनकी तृष्णा शांत हो जाती, तो वे उन्हें किसी ठंडी छायादार जगह पर बैठा देते। उन्होंने गायों को अन्य पशुओं से बचाया। गायों से प्राप्त दूध उनके स्वामी को सौंप दिया जाता था। विचार शर्मा की देखरेख में गायें शांति से रहती थीं, उनकी संख्या अधिक हुई और भारी मात्रा में वे दूध देती थीं। इससे लोग उनसे प्रसन्न हो गये।

नायनार की देखभाल से गायें भी प्रसन्न थीं और अपने बछड़ों के स्थान पर इन बालक के पास अपना दूध स्वयं देने लगीं। यह नायनार के लिए एक संकेत था कि यह अतिरिक्त दूध भगवान के अभिषेक के लिए था। सर्वशक्तिमान भगवान की पूजा करने की इच्छा से, जो शाश्वत आनंद देता है, बालक विचार शर्मा ने खेल-खेल में एक शिवलिंग बनाया और रेत से एक मंदिर का निर्माण किया। वे भगवान के जटा को सुसज्जित करने के लिए आसपास से पत्ते और फूल लाये। जब वे गायों के पास गये तो सभी गायों ने अत्याधिक दूध दिया। अपने हृदय को प्रभु के चरणों में रखकर, फूलों को भगवान को अर्पणकर, उन्होंने दूध के समान मीठे भगवान का अभिषेक करना प्रारंभ किया । पूजा के लिए जो अन्य पदार्थ की आवश्यकता थीं और जो उपलब्ध नहीं थीं उनके स्थान पर उन्हों ने अपने प्रेम को अर्पण किया। उन छोटे मनमोहक भक्त द्वारा पूजा के लिए दूध देने के बाद भी गायों ने अपने स्वामियों के लिए दूध की मात्रा कम नहीं की। जैसे-जैसे दिन बढ़ते गए यह भक्ति और पूजा बढ़ती गई।

एक दिन एक पथिक, उस मार्ग से जा रहा थे। उसने रेत से बने उस विग्रह को देखा, जिसका नायनार दूध से अभिषेक कर रहे थे। उसे इस पूजा की महिमा का अनुमान नहीं था। उसने जाकर नगर के लोगों से कहा कि, “वह ब्राह्मण बालक दूध को रेत पर डालकर नष्ट कर रहा है!” नगर परिषद ने इस बारे में यज्ञ दत्त से पूछताछ की। किसी को भी रेत के विग्रह में भगवान की उपस्थिति या बालक की अनुपम भक्ति या पूजा के लिए सम्मान या यहाँ तक कि वे यह बात भी भूल गए कि उस बालक के कारण ही उन्हे पहले की तुलना में अधिक दूध मिल रहा था। यज्ञ दत्त ने परिषद को आश्वासन दिया कि वे भविष्य में ऐसे न होने का ध्यान रखेंगे। शाम की पूजा के बाद वे घर वापस आये किन्तु उन्होंने अपने पुत्र को कुछ नहीं बताया, क्योंकि वे स्वयं अपने पुत्र के इस कृत्य को देखना चाहते थे। जब हमारे नायनार गायों को लेकर घर से चले तो उनके पिता ने उनका पीछा किया और एक वृक्ष के पीछे छिप गये।

निश्छल भक्ति के साथ नायनार ने प्रतिदिन के समान रेत से शिवलिंग और मंदिर बनाया, फूल और पत्ते अर्पण किए और उन भगवान जिनके आभूषण हड्डियाँ और कपाल हैं, उनका स्नेह से गायों के दूध के साथ अभिषेक प्रारंभ किया। अपने छोटे से पुत्र के समर्पण को अनुभव करने और उसकी प्रशंसा करने में असमर्थ यज्ञ दत्त ने इस कृत्य को समाजिक दृष्टिकोण से देखा। वे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने नायनार को कई बार पीटा। किन्तु नायनार के लिए अब वह केवल बच्चों का खेल नहीं था। यह प्रेम में आर्द्र तपस्या थी। उन्हे शिव के अतिरिक्त कुछ नहीं दिख रहा था और वे दूध अर्पण के आनंद में मग्न थे। पिता की मार से उन्हे दुख नहीं हुआ। वे परमानंद की स्थिति में थे जो भौतिक अस्तित्व से परे था। इससे क्रोधित होकर यज्ञ दत्त ने उस दूध के पात्र को लात मार दी, जिसका उपयोग नायनार भगवान पर दूध चढ़ने के लिए कर रहे थे। विचार शर्मा को बोध हुआ कि उनके पिता ने अपराध किया था। अब नायनार परम ज्ञान पा चुके थे और इस अवस्था में थे जहाँ उन्हे पता था कि वास्तविक "मैं" (पशु) का एकमात्र संबंध वे भगवान ही हैं, जो अपने शीर्ष पर गंगा को धारण किए हुए हैं। इसलिए, उन्हे कोई भेद का आभास नहीं हुआ कि जिसने यह विपरीत पापपूर्ण कार्य किया था वे उनके ही पिता थे, दुष्कर्म तो दुष्कर्म ही था। उस महान बालक ने, पास में पड़ी एक लाठी उठाई। उनके हाथ में वह एक कुल्हाड़ी में परिवर्तित हो गई। उन्होंने उससे यज्ञ दत्त पर प्रहार किया, जिनके द्वारा वह पापपूर्ण कार्य हुआ और पूजा में बाधा उत्पन्न हुई।  यज्ञ दत्त के पैर कट गए और वे रेत पर गिर पड़े। दृढ़ निश्चयी भक्त ने पूजा अनवरत रखी।

भगवान, अपने भक्त के निष्पक्ष व्यवहार से प्रसन्न होकर, ऋषियों की स्तुति और वेदों के मंत्रोच्चार के मध्य अपनी पत्नी के साथ पवित्र बैल पर प्रकट हुए। बालक ने प्रेम के स्वरूप को साष्टांग प्रणाम किया। महादेव ने बालक को उठाया और गले लगाया, "तुमने मेरी सेवा के लिए अपने पिता को भी दंडित किया। इस क्षण से मैं तुम्हारा पिता हूँ।" उन्होंने भगवान की सेवा को जो महत्व दिया, वे भगवान स्वयं, जो सबसे परे है, उनके पिता बन गए। इतनी सी आयु में भी उन्होंने पूरे जगत को सेवा का पाठ पढ़ाया। जिन बालक को तेजोमय रूप भगवान ने स्पर्श किया, वे सहस्र सूर्यों की प्रभा के साथ प्रकट हुए। ब्रह्माण्ड के स्वामी ने उन्हें अपने भक्तों का नायक बनाया और कहा, “सभी निर्माल्य - भोजन, आभूषण, वस्त्र, फूल और माला जो मुझे अर्पित किए जाते हैं, अब से तुम्हारे हैं। अब से तुम्हें चण्डेश के नाम से जाना जाएगा।” तब भगवान ने चण्डेश के प्रकाशमान केशों को अपने अर्धचंद्र से सुशोभित जटा से अमलतास के माला को निकाल कर, एक मुकुट पहनाया। चण्डेश नायनार ने जिस प्रकार की मुक्ति प्राप्त की उसे सारूप्यम के नाम से जाना जाता है जहाँ मुक्त आत्मा को तीन आँख, अर्धचंद्राकार मुकुट, हाथ में परशु एवं हिरण, और वाहन के रूप में बैल के साथ भगवान जैसा रूप मिलता है। स्वर्ग से फूलों की वर्षा हुई।  इकट्ठे उत्तम जनों ने नायनार की स्तुति की और शैवम के आलोकित मार्ग से होकर वे भगवान के साथ गए। उनके पाप निवृत्त पिता को भी अपने परिवार सहित शिवलोक की प्राप्ती हुई। उनकी कीर्ति की स्तुति की जाए, जिन्हे अपने महान काम के कारण प्रभु के पुत्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चण्डेश नायनार की सेवा की निष्पक्ष प्रकृति और अर्धचंद्राकार मुकुट धारण किए हुए शिव के प्रति उनका श्रेष्ठ प्रेम सदैव मन में बना रहे।

गुरु पूजा : तै / उतिरम या मकर / उत्तर फाल्गुनी   

हर हर महादेव 

See also:

Mention of Chandeeshar in various Thevaram Thirumurais

Chandesha anugrahamurti

Saha Umaskandamurti

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 


 

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