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एनातिनाथ नायनार दिव्य चरित्र

    
चोल राज्य के समतल प्रदेश में एईननूर नाम की नगरी थी । यहाँ की मिट्टी में उगे ऊंचे गन्ने के वृंत झुक कर लंबे धान के पौधों के साथ हाथ मिलाते थे । पर एईननूर की ऐतिहासिक कीर्ति एनातिनाथ के कारण है, जो ईला कुल से थे और राजा की सेना में दलपति थे । जहाँ उनकी वीरता का बखान उनकी तलवार करती थी वहीं उनका हृदय केवल भस्मभूत भगवान के चिंतन में लीन था । जो धन उन्हे अपने वीर कर्म से प्राप्त होता था वे उसे भगवान, जिनके भक्त स्वयं वे दो है जो ज्योति स्तम्भ के आदि ओर अंत को न जान पाए,  के भक्तों की सेवा में लगा देते थे ।  

Eanathinatha Nayanar - The History of Eanathinatha Nayanar
एनथिनाथ तलवार गिराए बिना खड़ा रहा - विरोधी को दोष से बचाने के लिए!

उसी नगरी में अशुद्ध विचारों वाला अतिसूर रहता था । वह भी ईला कुल का ही था। उसे अपनी  वीरता पर बडा गर्व था और अपनी प्रशंसा वह स्वयं करता था ।  पर उसके युद्ध कला के पाठशाला में बहुत कम छात्र थे । उस नगर के अधिकांश छात्र एनातिनाथ की पाठशाला में प्रशिक्षण लेते थे । यह बात अतिसूर को क्लेशदायी थी । जब अहंकार का आवरण घना बन जाता है तो सत्य ओझल हो जाता है । वह द्वेषी अतिसूर अपने उत्कर्ष छात्रों के साथ नायनार की पाठशाला की ओर चला और उसने नायनार को युद्ध की चुनौती दी । नायनार के छात्र उस समय पाठशाला में नहीं थे । फिर भी वे वीर एनातिनाथ सिंह के समान गरजते हुए अतिसूर का सामना करने आ गए । उनके कुछ शक्तिशाली संबंधी भी उनके साथ खड़े हो गए । 

आकाश में दो विशाल मेघों के समान दोनों दलों का सामना हुआ । दोनों एक दूसरे पर मेघगर्जन करते हुए टूट पड़े और जब उनके आयुद्ध एक दूसरे से टकराये तो बिजली गिरी। रक्त वर्षा हुई । दोनों दलों को क्षति पहुंची। फिर एनातिनाथ ने समर भूमि में प्रवेश किया। अकस्मात युद्ध की दिशा बदल गई और नायनार का दल जीतने लगा। नायनार की तलवार ऐसी चल रही थी मानो सूर्य का घूर्णन चक्र । अतिसूर की सेना पराजित होने लगि। तब अतिसूर स्वयं रण भूमि में उतरा । पर क्या गीदड़ कभी शेर का सामना कर सकता है? अतिसूर हार गया और वह रण भूमि छोड़ कर भाग गया ।  

अतिसूर को अपने शरीर पर लगे घावों की चिंता नहीं थी, प्रतिशोध की ज्वाला उसके अंतर मन के घाव को और गहरा बना रही थी । उसे पता था की सीधे युद्ध में वह कभी भी एनातिनाथ को हरा नहीं पाएगा। अब उसके दुष्ट मन में एक कुटिल सोच ने जन्म लिया । उसने नायानार को अगले दिन अकेले युद्ध के लिए ललकारा ।  क्षात्र धर्म के अनुसार योद्धा को युद्ध की चुनौती स्वीकार करनी ही पड़ती है। अतिसूर को यह पता था और नायनार ने इसी धर्म का अनुसरण किया। एनातिनाथ नियमित स्थान पर, तलवार और ढाल के साथ, बिना किसी को सूचित किए आ गए। अब उस कायर ने अपने कुटिल योजना को पूर्ण किया । उसने वह किया जिसे उसने अब तक अपने जीवन में नहीं किया था - अपने माथे पर भस्म लगाया । अतिसूर जानता था कि एनातिनाथ किसी भी भस्म धारी पर हाथ नहीं उठाएंगे।  

सिंह को देख वह धूर्त कांपा। उसने बड़ी चालाकी से ढाल के साथ अपने माथा को छिपाया और नायनार की ओर बढ़ा। जैसे ही नायनार उसपर वार करने के लिए सज्ज हुए, उसने ढाल हटा दिया। नायनार स्तंभित रह गए। उन्होंने अतिसूर को कभी भी भस्म लगाते नहीं देखा था । उन्हे लगा अतिसूर सच्च में परमेश्वर का भक्त बन गया था । और अब एनातिनाथ, अतिसूर को विजयी देखना चाहते थे। पर वे अपनी तलवार को त्याग नहीं सकते थे। क्षात्र धर्म के अनुसार नि:शस्त्र पर वार नहीं किया जा सकता था। नि:शस्त्र पर वार करने से दोष लगता था। एनातिनाथ यह नहीं चाहते थे कि अतिसूर को कोई दोष लगे । यही थी एनातिनाथ की महानता – अपने शत्रु, जिसने भगवान के भस्म रूपी चिह्न को धारण किए था, वे उसका भी निष्कलंक विजय चाहते थे।  इसलिए उन्होंने बीने तलवार चलाए अतिसूर को उनके प्राण लेने दिया । भगवान शिव जिन्होंने दक्ष के यज्ञ का नाश किया था, वे प्रकट हुए और अपने भक्त को अपने साथ ले गए । 

एनातिनाथ की उदारता हमारे मन में सदैव रहे – जिस कारण उन्होंने अपनी जय और प्राण, दोनों को केवल इसलिए त्यागा क्योंकि शत्रु ने भगवान शिव के चिह्न (भस्म) को धारण किया हुआ था । 

गुरु पूजा : पुरट्टासि / उतिरम या कन्या / उत्तर फाल्गुनी    

हर हर महादेव 

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 


 

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