पेरिय पुराण में सुंदरमूर्ति नायनार का चरित्र अन्य भक्तों के जीवन वृत्तांतों से पृथक है क्योंकि इसे सेकिलार ने एक खंड में समाहित नही किया अपितु पूरे पुराण में अनेक स्थानों में वर्णित किया है। पेरिय पुराण में ऐसी व्यवस्था है कि प्रथम प्रभु के निवास, कैलाश से इस महान भक्त के अवतरण का वर्णन है, तद्पश्चात उनके माध्यम से ६२ महान भक्तों और ९ भक्त-समूहों के वृत्तांतों का वर्णन है और अंतत: उनकी प्रत्यावतरण का वर्णन किया गया है। शिव के भक्तों के प्रति अपनी श्रद्धा के कारण, सुंदरमूर्ति नायनार ने अपनी रचना, तिरुतोण्डतोकै, उन्हें समर्पित किया है। इस लेख में, उनके चरित्र को पेरिय पुराण के विभिन्न भागों के संक्षिप्त विवरणों को साथ जोड़कर एक सतत वर्णन में प्रस्तुत किया गया है।
पवित्र स्थानों में महान कैलाश पर्वत सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। मंत्रों, भूत-समूहों के नृत्य और देवताओं की स्तुतियों से गूंजता हुआ, भगवान का वह महान निवास स्थान सारूप्य प्राप्त भक्तों के प्रमुख, पूज्य नन्दी, द्वारा संरक्षित हैं। उस पवित्र पर्वत के परिसर में, श्री कृष्ण के गुरु और भगवान शिव के परम भक्त ऋषि उपमन्यु रहते हैं। एक समय जब वे अपने आश्रम में योगियों के मध्य बैठे थे, तो वहाँ सहस्र सूर्यों के तुल्य एक अद्भुत प्रकाश प्रकट हुआ। योगियों को आश्चर्य हुआ और उन्होंने ऋषि उपमन्यु से प्रश्न किया। भगवान शिव की कृपा से, ऋषि उपमन्यु ने उन्हे बताया कि वह तेज सुंदरमूर्ति नायनार थे जो अपने निवास लौट रहे थे। यह सुनकर उन योगियों ने प्रेरित होकर उस अद्भुत भक्त के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की। इस प्रकार, महान ऋषि ने सुंदरर की कथा प्रारंभ की।
कैलाश के पवित्र पर्वत पर आलाल सुंदर नाम से भगवान शंकर के एक सेवक रहते थे। पूजा के लिए पुष्प और जल लाकर वे प्रभु की सेवा करते थे। एक दिन जब वे उद्यान से पुष्प चयन के लिए गये तो देवी शक्ति की सेवा करने वाली दो सुंदर स्त्रियाँ भी पुष्प लेने वहाँ आईं थीं। आलाल सुंदर उनकी सुंदरता से आकर्षित हो गये। वे स्त्रियाँ भी उनपर मोहित हो गईं। पुष्प चयन कार्य पूरा कर वे अपने-अपने स्थान पर लौट आये। तद्पश्चात, उमा से अविभाज्य भगवान ने आलाल सुंदर के हृदय में जड़ित इच्छा की ओर संकेत करते हुए उन्हे उसकी पूर्ती हेतु संसार में जन्म लेने का आदेश दिया। कांपते हुए भक्त के उचित समय पर उद्धार की प्रार्थना को प्रभु ने स्वीकार किया । संसार को अपने प्रभु के प्रेम से सिक्त देवारम का आशीर्वाद देने के लिए और भारत के दक्षिण खण्ड को वरदान के रूप में, उन अद्भुत संत का जन्म हुआ।
तिरुमुनैपाडी की भूमि में तिरुनावलूर नगर है, जो शैव धर्म के दो सुप्रसिद्ध संत – इसैज्ञानियार और जटयार का जन्मस्थान है। सुंदरर का जन्म आदि-शैव ब्राह्मणों की परंपरा में इस भक्त दंपति के घर हुआ था। इस संसार के लिए वरदान के रूप में जन्मे बालक का नाम नंबियारूर रखा गया। एक दिन जब वे एक क्रीडारथ के साथ खेल रहे थे, तब राजा नरसिंग मुनैयरैयर ने आकर्षित होकर उसे प्रेम से पुत्रीकरण किया। युवा सुंदरर राज घराने में पले-बढ़े किन्तु साथ ही उन्होंने अपनी वैदिक परंपरा के अनुसार वेद और संस्कृति सीखी। उनके पिता जटयार को षडङ्गवियार की पुत्री में एक उपयुक्त संबंध मिला और उन्होंने सुंदरर के विवाह की व्यवस्था की।
विवाह के दिन सुंदरर को सुगंधित पदार्थों से स्नान कराया गया, विवाह के पोशाक पहनाए गये, चंदन और अन्य सुगंधों से सुगंधित किया गया और मालाओं से सजाया गया। मनमोहक सुंदरर ने भगवान के पवित्र चरणों को नमस्कार करते हुए, अपने माथे को पवित्र भस्म से सुसज्जित किया। अश्वारोहित सुंदरर समेत उनकी बारात उस मंडप में पहुंची जहाँ वधू के परिवार ने विवाह समारोह का आयोजन किया था। भगवान, जिन्होंने सुंदरर को समय पर उद्धार का वचन दिया था, एक वृद्ध व्यक्ति के वेश में आए, उन्होंने सावधानी से अपने तीसरे नेत्र को पवित्र भस्म से छिपाया, उनके केश, श्वेत चंद्रमा की किरणों के समान उनके मुकुट को सुशोभित कर रहे थे और वक्ष पर एक पवित्र त्रिसूत्र उनकी शोभा बढ़ा रहा था। वे विवाह मंडप में प्रवेश हुए और ध्यान आकर्षित करने लगे। संबंधियों ने आदर से वृद्ध व्यक्ति का स्वागत किया और उनकी बात सुनी। वृद्ध व्यक्ति ने मांग की कि सुंदरर एक पुराना ऋण चुकाये और तद्पश्चात विवाह के लिए आगे बढ़े। विनम्र स्वभाव वाले सुंदरर ने आश्चर्यचकित होकर उस ऋण के विषय में पूछा।
ब्रह्मा और विष्णु सहित सभी देवगण द्वारा नित्य सेवित भगवान ने घोषणा की कि वर सुंदरर उनके दास थे। "क्या आप मतिभ्रष्ट (“पित्तन”) है?" - भीड़ और सुंदरर ने उनका उपहास किया। वे वृद्ध पुरुष, जिनका दास बनने के लिए महात्मा भी लंबी तपस्या करते हैं, डरते हुए से कहने लगे कि उनके उपहास या उन्हे मतिभ्रष्ट कहने से कुछ नहीं होगा और जो उनका है वे उसे प्राप्तकर हि रहेंगे। उन्होंने कहा कि उनके पास सुंदरर के पितामह द्वारा दिए गया हस्ताक्षर सहित ताड़पत्र प्रमाण के रूप में है, जिसमें कहा गया है कि सुंदरर उनके दास है। हैरान और परेशान होकर, सुंदरर ने उन्हे हस्ताक्षर दिखाने की चुनौती दी। शरणागतवत्सल प्रभु, ने सुंदरर से डरने का नाटक किया और विवाह मंडप से बाहर निकलते हुए कहा कि वे इसे केवल नगर पंचायत में दिखाएंगे। अपने दुखदायी पाशों से मुक्त धन्य सुंदरर ने उनका अनुसरण किया।
वृद्ध व्यक्ति ने नगर पंचायत में उपस्थित होकर अपना अधिकार प्रतिपादित किया। उन्होंने नंबियारूरर पर हस्ताक्षर के सहित ताड़पत्र के प्रमाण को भी नष्ट करने का आरोप लगाया! पंचायत ने याचिकाकर्ता से प्रश्न किया कि एक ब्राह्मण को दूसरे ब्राह्मण के दास के रूप में कैसे दिया गया। उन्होंने उन वृद्ध के निवास स्थान के विषय में भी पूछा। वृद्ध ने उत्तर दिया कि वे तिरुवेण्णैनल्लूर से है और यह भी कहा कि मूल प्रमाण पत्र अभी भी उनके पास है। उन्होंने कहा कि वे तिरुवेण्णैनल्लूर के ब्राह्मणों के पंचायत में इस विषय को प्रस्तुत करेंगे। नंबियारूर ने उनका उपहास किया और उन्हें चुनौती दी कि वे जहाँ चाहे अपना प्रमाण प्रस्तुत करें। वे वृद्ध तिरुवेण्णैनल्लूर की ओर गये और जैसा लोहा चुंबक के पीछे जाता है, नम्बियारूरर उनके पीछे चले। वृद्ध ने अपना विषय तिरुवेण्णैनल्लूर के ब्राह्मण पंचायत के समक्ष रखा। पंचायत ने वृद्ध से प्रमाण के साथ अपना अधिकार सिद्ध करने के लिए कहा। पंचायत से यह आश्वासन मिलने के पश्चात कि उनका कोई अनिष्ट नहीं होगा, वृद्ध ने उनके समक्ष उस मूल ताड़पत्र को प्रस्तुत किया। उस ताड़पत्र में लिखा था - "नावलूर के अरूर (सुंदरर के पितामह) लिखता हूँ - तिरुवेण्णैनल्लूर के आधारणीय “पित्तन” (मतिभ्रष्ट) का, मैं और मेरे वंशज दास होंगे। यह मेरा वचन है।" पंचायत ने पुराने ताड़पत्र से हस्ताक्षर की जाँच की और चमत्कारिक रूप से उन्हें प्रामाणिक पाया! पंचायत ने निर्णय सुनाया कि नंबियारूर वास्तव में उस वृद्ध व्यक्ति के दास हि थे!
गुरु पूजा : आडि / स्वाती या कर्क / स्वाती
हर हर महादेव
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र