करुवूर देवर उन नौ भक्तों में से एक हैं जिन्होंने नौवें तिरुमुरै - दिव्य तिरुविसैपा के पदिगम गाए हैं। उनकी रचनाएँ तिरुविसैपा के तीसरे भाग में अंकित हैं। चूँकि उनका जन्म करुवूर नगर में हुआ था, इसलिए उन्हें करुवूर देवर कहा जाता है। उनका वास्तविक नाम ज्ञात नहीं है। वे 10 ई.पू और 11 ई.पू के बीच रहे। वे चोल सम्राट राजराज और राजेंद्र के समकालीन थे। वे एक वैदिक ब्राह्मण थे। उन्होंने वेदों और कलाओं का उत्कृष्ट रूप से अध्ययन किया था। वे बहुत मधुर तमिल भजन के विशेषज्ञ थे। वे परम पिता शिव के प्रति समर्पित थे और उन्होंने सिद्ध भोगनाथ से आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त की थी। उन्होंने शिव योग का अभ्यास किया और कई अद्भुत सिद्धियाँ प्राप्त कीं। वे अनासक्त रहे। अहंकार से अविचलित, वे एक विक्षिप्त व्यक्ति के समान वनों और पर्वतों में अटन करते थे और भिक्षा माँगते थे।
वे उत्तर भारत के तीर्थ यात्रा पर गए । लौटते समय वे कोंगु, तोंडै और नडु राज्यों से होते हुए दक्षिणी पांड्य राज्य में पहुँचे। वे ताम्रपर्णी नदी के तट पर तिरुप्पुडै मरुदूर पहुँचे। नदी में बाढ़ थी। दूसरे तट से करुवूर देवर ने “नारुम्पू नाथा!” कह कर प्रभु को पुकारा। बछड़े की पुकार की प्रतिक्रिया जैसे गाय देती है, उसी के समान भगवान उन्हे देखकर कहा, “आओ!”। नदी में बाढ़ कम हो गई। उनकी भक्ति की बाढ़ उन्हें भगवान के समीप ले गई। गुरुओं के गुरु आदिगुरु ने इन विद्वान को अपने चरणों में दीक्षा दी। करुवूर देवर ने कान्थीश्वरम (श्री वैकुंठम के समीप) और तिरुनेलवेली में शिव की आराधना की।
करुवूर देवर तिरुकुत्रालम गए और वहाँ कुछ समय तक रहे । तद्पश्चात वे पोदिगै पर्वत पर गए जहाँ उनकी भेंट ऋषि अगस्त्यर से हुई, जिन्होंने उन्हे आशीर्वाद दिया। इस मध्य महान सम्राट राजराज तंजावूर में भगवान के लिए एक विशाल मंदिर का निर्माण कर रहे थे। भगवान की मूर्ति की स्थापना के लिए, "अष्टबंधन मरुंदु" (बंधक सामग्री) सख्त नहीं हो रहा था, जिससे राजा अत्यंत चिंतित थे। करुवूर देवर के आध्यात्मिक मार्गदर्शक भोगनाथ ने उन्हें तंजावूर बुलाया। वहाँ महान सिद्ध ने भगवान की पूजा करते हुए, बंधक सामग्री को कड़ा बनाया और इस प्रकार पवित्र स्थापना पूर्ण करने में योगदान दिया। तद्पश्चात वे श्री रंगनाथ को प्रणाम करने गये और करुवूर लौट आये। नगर के परम्परानिष्ठ लोग, जो केवल बाहरी दिखावे को पहचानते थे और उनकी आध्यात्मिक विशेषताओं को नहीं, सिद्ध का उपहास उड़ाते थे। उन्होंने उन्हे कई प्रकार से क्षुब्ध किया। एक दिन भय का अभिनय करते हुए सिद्ध ने निर्णय लिया कि उनका समय चुका था। वे आनिलै मंदिर के गर्भगृह में गये और भगवान पशुपतीश्वर में विलीन हो गये। करुवूर देवर का तिरुविसैपा के नौ लेखकों में से सबसे अधिक योगदान हैं। उन्होंने दस पदिगम गए हैं । तिलै ("कोयिल", चिदम्बरम), तिरुकलंदै आदित्येश्वरम, तिरुकिलकोट्टूर मनियम्बलम, तिरुमुकतलै, त्रैलोक्य सुंदरम, गंगैकोंड चोलीश्वरम, तिरुपूवनम, तिरुचाट्टियक्कुडी, तंजै राजराजीश्वरम और तिरुविडैमरुदूर पर एक-एक पदिगम गाए हैं।
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