तिरुवेंकाट्टु अडिकल उन बारह भक्तों में से एक हैं जिन्होंने दिव्य पदिनोरान तिरुमुरै - ग्यारहवें तिरुमुरै में योगदान दिया है। ज्ञान और अनुभव के इस भक्त ने कई गीतों की रचना की है जो लोगों को ऐसे विषयों पर दृष्टिकोण प्रदान करते हैं जिनके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा या जिनके बारे में सोचने में वे निराकांक्षी होंगे। 9 ई.पू के अंत में रहने वाले इस भक्त ने एक संपन्न और एक भिक्षुक जीवन, दोनों का यापन किया था और अपने अनुभवों से उत्पन्न प्रज्ञता को शब्दों में व्यक्त किया है जैसे - "जीवन के लाभ और हानि में भ्रमित मत होना। सत्य को समझो और उसकी स्तुति करते हुए आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करो”।
कावेरीपूंपट्टिनम या पुगार महान चोल साम्राज्य का एक पत्तन था। यहाँ चोल राज्य की जीवनदी काविरी समुद्र में विलीन हो जाती है। अपनी भौगोलिक स्थान के कारण, यह बंदरगाह व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। यह व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण नगर स्वाभाविक रूप से स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करने वाले कई समृद्ध व्यापारियों का घर था। यहाँ शिव नेयर नाम के एक धनी व्यापारी रहते थे। वे न केवल भौतिक संपदा में अपितु नैतिकता, दान, सत्यपरायणता और धर्मपरायणता में भी समृद्ध थे। जिन भगवान शिव ने कुबेर को धन का स्वामी नियुक्त किया था, वे उनके भक्त थे । उनके और उनकी पवित्र पत्नी ज्ञानकलै के यहाँ उनके अनुशासन और भक्ति के परिणामस्वरूप एक पुत्र का जन्म हुआ। चूंकि इनका जन्म भगवान की कृपा से तिरुवेंकाट्टु नगर में हुआ था, इसलिए उन्होंने बालक का नाम तिरुवेंकाटर रखा। बालक तिरुवेंकाटर ऐश्वर्य में बड़े हुए। जब वे पाँच वर्ष के थे, तो उनके पिता शिवपद को प्राप्त हो गए।
तिरुवेंकाटर कला और साहित्य में शीघ्र पारंगत हो गए । भगवान शिव के प्रति उनकी भक्ति भी प्रज्वलित हुई। सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने शिवचिदंबर चेट्टियार और शिवकामी अम्मैयार की पुत्री शिवकलै से विवाह किया। उन्होंने प्रेम और सेवा के साथ एक सफल वैवाहिक जीवन व्यतीत किया। दंपति ने भगवान के सेवकों और अन्य धर्मपरायण लोगों की सेवा की। तिरुवेंकाटर ने अपने व्यवसाय के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन किया। उन्होंने अपने प्रयासों से अत्याधिक धन अर्जित किया। उन्होंने समुद्र और भूमि व्यापार के माध्यम से अपना भाग्य बनाया। बहुत धन होने पर भी, कई वर्षों तक उनके कोई संतान नहीं हुई। तद्पश्चात उन्होंने तिरुविडैमरुदूर में भगवान से संतान के लिए प्रार्थना की।
तिरुविडैमरुदूर में भगवान मरुतवाण अपने दो विशिष्ट भक्तों पर अपनी कृपा की वृष्टि करने के लिए उत्सुक थे। उनमें से एक शिव-शर्मा नामक एक सेवक थे जो हलाहल से जगत की रक्षा करने वाले नीलकंठ की पूजा करने में कभी नहीं चूकते थे। उन्होंने भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं को प्रदान करके शिवभक्तों की सेवा की। हालाँकि वे निर्धन हो गये, किन्तु उन्होंने कभी सेवा के मार्ग को नहीं छोड़ा। इस सेवक और तिरुवेंकाटर दोनों का मार्गदर्शन करने के लिए, प्रभु शिव-शर्मा की पवित्र पत्नी सुशीला के स्वप्न में प्रकट हुए, और उनसे तिरुविडैमरुदूर मंदिर के समीप बिल्व वृक्ष के नीचे एक शिशु के विषय में बताया। उन्होंने उनसे कहा कि वे उस शिशु को ले जाए, उसे तिरुवेंकाटर को दे दे और उनसे अपनी सेवा निरंतर रखने के लिए धन प्राप्त करें। जब शिशु को तिरुवेंकाटर के समीप लाया गया, तो भगवान ने उन्हे उदारतापूर्वक दान करने का आदेश दिया। दोनों भक्त प्रसन्न थे और उनकी समस्याओं का निवारण करने वाले भगवान मरुतवाण का आभार प्रकट किया।
मरुतवाण की कृपा से प्राप्त संतान का नाम मरुतवाण रखा गया और उसका पालन पोषण ऐश्वर्य में हुआ। मरुतवाण ने सिंधु के ऋषि द्वारा शपित मणिभद्र नामक एक गंधर्व को मुक्ति दिलाई। सिंधु के ऋषि ने उसे मछली होने का श्राप दिया था। सोलह वर्ष की आयु में, मरुतवाण व्यापार के लिए समुद्री यात्रा पर निकल पड़ा। लौटते समय, वह गोमल की बोरियां लाया और उन्हें अपने पिता को दे दिया। उसने एक छोटी सी पेटी अपनी मां को दिया और तिरोहित हो गया। वेंकाटर ने आशा की थी कि मरुतवाण अपनी समुद्री यात्रा से धन-संपत्ति लेकर आएगा, किन्तु गोमल से भरी बोरियों को देखकर वे क्रुद्ध हुए। जैसे ही उन्होंने गोमल की उन बोरियों को फेंका, उन्होंने गोमल के मध्य छिपे दुर्लभ और बहुमूल्य रत्नों की को देखा। आश्चर्यचकित, पिता जब अपने पुत्र को ढूंढते हुए आये तब उनकी पत्नी शिवकलै ने उन्हे वह पेटी दी जो उनके पुत्र ने उन्हे दिया था। उस पेटी के अंदर एक बिना आँख की सूई, एक ताड़ पत्र और एक कौशेय वस्त्र था। उस ताड़ पत्र पर ये शब्द लिखे थे – “कादत्र ऊसीयुम वरादु काण नुम कडैवालके” – अर्थात, हमारी अंतिम यात्रा पर एक आँख रहित सूई भी साथ नहीं आएगी। इन शब्दों ने उनके सांसारिक भ्रम को तोड़ दिया और उन्हें परम ज्ञान का अनुभव दिया।
तिरुवेंकाटर ने अपना सांसारिक जीवन त्याग दिया और शेष जीवन शैव धर्म के मार्ग पर चलने का निश्चय किया। उन्होंने अपने मुख्य लेखापाल सेंदनार को अपनी सारी संपत्ति दान में बांटने का आदेश दिया और अपनी नई कठोर जीवन आरंभ करने से पूर्व अपनी पत्नी को सांत्वना दी। धन और प्रतिष्ठा को प्राथमिकता देने वाले बंधुजनों को अपने ही संबंधी को भिक्षुक के रूप में भटकते देखना असहनीय था। उन्होंने वेंकाटर की सहोदरी के माध्यम से विष से परिपूर्ण अप्पम (खाद्य पदार्थ) भेजकर उनके प्राण लेने की चेष्टा की। किन्तु सचेत तपस्वी पट्टिनतडिकल ने इसका आभास होते ही उस अप्पम को घर की छत पर फेंक दिया और "ओटप्पम वीट्टै सुडुम" (अप्पम घर को जला दे) गाया। जैसे ही घर और निकट के घरों में आग लगी, बंधुजन पट्टिनतार के चरणों में गिर पड़े और दया की भिक्षा मांगने लगे। तद्पश्चात एक अन्य गीत गाकर उन्होंने अग्नि को शांत की। अपनी माता के अनुरोध पर, वे उनकी मृत्यु तक उसी नगर में निवास करने लगे।
पट्टिनतार ने तिरुविडैमरुदूर की यात्रा की और तिरुविडैमरुदूर मुम्मणि कोवै की रचना की। तद्पश्चात उन्होंने चोल, पांड्य, मलै, तोंडै, कोंगु और तुलुव देशों (दक्षिण भारत) में कई मंदिरों की यात्रा की और ज्ञान से पूर्ण कई गीत गाए। उन्होंने कई स्थानों में भगवान शिव की पूजा की और उत्तर दिशा की ओर चले गए। उन्होंने तिरुवारूर में रोग से मृत एक बालक को पुनर्जीवित किया। कोंगु राज्य में, एक रात उन्हे बड़ी भूख लगी थी और उन्होंने भोजन के लिए एक घर के द्वार पर खटखटाया। घर के लोगों ने उन्हे चोर समझ लिया और उनकी पिटाई कर दी। उन्हे एक संत जानकर, पड़ोसियों ने हस्तक्षेप किया और उन्हे मुक्त किया। तब से, भले ही क्षुधा से उनके प्राण क्यों न चले जाए, उन्होंने भोजन हेतु भिक्षा न माँगने का निर्णय लिया। जो भी भोजन उनके लिए लाया जाता था, वे उससे ही संतुष्ट हो जाते थे।
जब पट्टिनतार उज्जैन नगर में थे, तब एक समय वे गणेश मंदिर में सर्वव्यापी शंकर का ध्यान कर रहे थे। राजमहल को लूटकर कुछ चोरों ने जाते समय देवता की ओर एक मोती की माला फेंकी। किन्तु माला ध्यान कर रहे संत के गले में गिर गई। चोरों का पीछा कर रहे राजा के सैनिकों ने पट्टिनतार को चोर समझ लिया। तथ्यों की जांच किए बिना, राजा ने उन्हे एक सूली (कलुमरम) पर चढ़ाने का आदेश दिया। “मैं कर्ता नहीं हूँ” - इस प्रकार पट्टिनतार ने गाया और महादेव को आत्मसमर्पण कर दिया। सूली पर अचानक आग लग गई। संत की शक्ति और निर्दोषता का अनुभव करते हुए, राजा ने क्षमा मांगी और भिक्षु को उन्हे सेवक के रूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया। पट्टिनतार ने राजा को सिंहासन त्यागने और तिरुविडैमरुदूर जाने का आदेश दिया। राजा भद्रगिरि नामक एक तपस्वी बन गये। तद्पश्चात पट्टिनतडिकल ने उत्तर की ओर अपनी तीर्थयात्रा की। तिरुविडैमरुदूर लौटने पर उन्होंने अपने शिष्य भद्रगिरि को मोक्ष दिया।
इस बीच, तिरुवेंकाटर के मुख्य लेखापाल सेंदनार ने उनके आदेश पर उनकी संपत्ति दान में दे दी। किन्तु उनके बंधुजन के कहने पर राजा ने सेंदनार को कैद कर लिया। पट्टिनतार ने भगवान से प्रार्थना की और सेंदनार को मुक्त करवाया। तद्पश्चात वे सीरकाली गए और तिरुकलुमल मुम्मणि कोवै नामक प्रबंध की रचना की। उन्होंने तिलै में नटराज पर नानमणि मालै की रचना की। फिर उन्होंने अण्णामलैयार की पूजा की और कांचीपुरम गए। वहां उन्होंने कचि तिरुवंतादि, तिरुवेकंब मालै और कचि तिरुवकवल की रचना की। उन्होंने तिरुक्कलुक्कुन्रम, तिरुवालंगाडु और श्रीकालहस्ती जैसे स्थानों पर सर्वव्यापी प्रभु की पूजा की और तिरुविडैमरुदूर के भगवान के मार्गदर्शन के अनुसार तिरुवोत्रियूर पहुंचे। प्रभु के आदेश के अनुसार, उन्होंने अपने अनुभवों को अरुत्पुलम्बल या अरुत्पनुभावङ्कल कृतियों में व्यक्त किया।
एक दिन तिरुवोत्रियूर में वैदिक यज्ञ के प्रमुख भगवान शिव की पूजा करते हुए रह रहे पट्टिनतार, ग्वाल-बालकों के साथ खेल रहे थे। बालकों ने उन्हें एक गड्ढे में डालकर उसे रेत और पौधों से ढक दिया। और देखते ही देखते! वे दूसरे गड्ढे से बाहर आ गए! यह क्रीडा कुछ समय तक चलता रहा। इस मध्य एक बार, जब उन्हें एक गड्ढे में बंद कर दिया गया, तब वे बाहर नहीं आए! वे परम सत्य के साथ एक हो गए और उन्होंने शिव लिंग का रूप ले लिया।
हर हर महादेव
See Also:
1. பதினொன்றாம் திருமுறை
2. பட்டினத்தார் பாடல்கள்
3. सेन्दनार