शैव जगत, न केवल तीन समय गुरुओं (सम्बन्धर, अप्पर और सुंदरर) के अद्भुत और अतुलनीय देवारम के पुनरुत्थान के लिए, अपितु सुंदरर के तिरुतोंडर पुराणम में उल्लिखित ६३ नायनमार के इतिहास का विस्तार करने के लिए भी तिरुनारयूर नम्बियाण्डार नम्बि का सदा ऋणी रहेगा ।
नम्बियाण्डार नम्बि ने ग्यारहवें तिरुमुरै में कई गीतों की रचना की है। उनका जन्म आदिशैव परिवार में हुआ था और वे तिरुनारयूर के त्रिनेत्रधारी मंदिर में पुजारी थे। अपने उपनयन के पश्चात, उन्होंने वेदों और वेदांगों के साथ कलाओं का भी अध्ययन किया।
एक दिन नम्बि के पिता को नगर से बाहर जाना पड़ा, इसलिए उन्होंने पोला पिल्लैयार मंदिर में नित्य पूजा का कार्य नम्बि को सौंप दिया। छोटे बालक नम्बि ने प्रशिक्षण के अनुसार अनुष्ठान किए। अंत में उन्होंने गणपति के समक्ष नैवेद्य रखा। उन्हे नहीं पता था कि उनके पिता प्रतीकात्मक रूप से भगवान के समक्ष नैवेद्य रखते थें और उसे वापस ले लेते थें।
उस छोटे बालक ने गणपति द्वारा नैवेद्य ग्रहण करने की प्रतीक्षा की। चूँकि भगवान ने नैवेद्य ग्रहण नही किया, बालक नम्बि यह सोचकर रोने लगे कि उनकी पूजा में कोई त्रुटि थी। उन्होंने निश्चय किया कि यदि भगवान ने नैवेद्य स्वीकार नहीं किया, तो वे वहीं पर अपना शीर्ष फोड़कर अपने प्राण त्याग देंगे। बालक के शुद्ध और सच्चे प्रेम ने भगवान के हृदय को द्रवीभूत कर दिया। गणपति प्रकट हुए और उन्होंने न केवल बालक के प्राण बचाए, अपितु उनके द्वारा लाये गये सम्पूर्ण नैवेद्य को भी ग्रहण कर लिया। चूँकि उस दिन नम्बि पाठशाला नही जा पाए, इसलिए उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि वे उसे उस दिन पाठशाला का विषय सिखा दें और शिक्षक के क्रोध से उन्हे बचाएँ। इस धन्य बालक को सर्वज्ञ गजानन, जिनकी पूजा दुर्लभ शिव-ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाता है, ने सब कुछ सिखाया!!
अगले दिन भी यही हुआ और कुछ दिनों तक यह निरंतर हुआ। समाचार वनमल्लिका पुष्प के सुगंध के समान व्याप्त हो गई। यह चोल सम्राट राजराज तक पहुँची। वे मंत्रियों, सभासदों और जनसमुदाय के साथ तिरुनारयूर आए। भगवान के लिए केले, मधु, चावल, अप्पम (मिठाई) और तिल के गोले का नैवेद्य लेकर आए। तिरुनारयूर में उत्सव का वातावरण था। सम्राट ने अल्पवय संत नम्बियाण्डार नम्बि को प्रणाम किया और उनसे भगवान गणपति को नैवेद्य के लिए लाए गए केले, आम, कटहल और अन्य पदार्थों को चढ़ाने का निवेदन किया। नम्बि ने पवित्रता और प्रेम के साथ भगवान की पूजा की। गणपति ने सब नैवेद्य को स्वीकार कर करते हुए, अपनी सूंड के एक झटके से सब ग्रहण कर लिया!
आश्चर्यचकित राजा ने बालक की प्रशंसा की और परमेश्वर के प्रति अपने अद्भुत प्रेम के कारण नम्बि से तीन महान शैव समय गुरुओं (सम्बन्धर, अप्पर और सुन्दरर) द्वारा गाए गए देवारम गीतों को पुनः प्राप्त करने में सहायता करने का अनुरोध किया। गणपति पर पूर्ण विश्वास के साथ बालक ने राजा के अनुरोध को पूरा करने का वचन दिया। भक्ति के आँसुओं के साथ बालक ने भगवान गणेश की पूजा की। राजराज को प्रसन्न करने और देवारम के पुनरुत्थान के लिए, सदैव दयालु गणपति ने बताया कि चिदम्बरम (तिल्लै) मंदिर में नटराज के पीछे एक कक्ष में ताड़ पत्र पर लिखे देवारम पदिगम थे। भगवान गणेश ने उन्हे उस कक्ष को निश्चित करने के चिह्न भी बताए। गणपति ने नम्बि द्वारा यह जानकारी भी दी कि इनमे से तिरुज्ञानसंबन्धर के १६००० पदिगम, तिरुनावुकरसर के ४९००० पदिगम और सुंदरर के ३९००० पदिगम हैं।
जब नम्बी और सम्राट ने तिलै में उस विशेष कक्ष को खोला, तो वे यह देखकर स्तब्ध थे कि अधिकांश अमूल्य ताड़ पत्रों को वल्मीक खा गए थे!! तब भगवान की वाणी ने उन्हें यह कहकर सांत्वना दी, "केवल वे देवारम गीत बचे है जो इस समयकाल के लिए आवश्यक है शेष नष्ट हो गए"। मात्र १० प्रतिशत रचनाएँ पुनः प्राप्त हुई। इस प्रकार संरक्षण के अभाव के कारण ताड़ पत्रों पर लिखे गए कई गीत लुप्त हो गए। भविष्य के लिए इन बहुमूल्य गीतों को राजा ने ताम्र पत्रों पर उत्कीर्ण करने की व्यवस्था की। संपूर्ण शैव जगत दिव्य देवारम गीतों के संरक्षण के लिए इन दो महान भक्तों का सदैव ऋणी है।
राजा के अनुरोध पर, नम्बियाण्डार नम्बि ने इन देवारम गीतों के साथ तिरुवासकम, तिरुविसैपा और तिरुमंतिरम जैसे अन्य महान कार्यों का एक शैव संग्रह बनाया और वे दस तिरुमुरै के रूप में संकलित हुए। बाद में, राजराज के निदेशन पर, तिरुमुखपासुरम और कुछ अन्य रचनाओं को एक संग्रह में संकलित किया गया, जो ग्यारहवां तिरुमुरै बन गया। चोल राजा कुलोत्तुंग द्वितीय (अनपाय) के काल में, तिरुतोंडर पुराण संकलित किया गया और इसे बारहवें तिरुमुरै के रूप में तिरुमुरै संग्रह में जोड़ा गया। तिरुनीलकण्ठ यालपाणर के वंशज के माध्यम से देवारम पदिकम के पण्ण या राग को पुनर्स्थापित किया गया। भगवान गणपति के आशीर्वाद से, नम्बि ने अपने तिरुतोंडर तिरुवंतादि में सुंदरर द्वारा उल्लिखित ६३ महान भक्तों के जीवन को विस्तृत किया। उन्होंने अपने प्रबंध रचनाओं के माध्यम से संबन्धर और अप्पर के जीवन का भी वर्णन किया। नम्बियाण्डार नम्बि का काल 10 ई -11 ई शताब्दी माना जाता है।
हर हर महादेव
See Also:
1. Padhinoran Thirumurai
2. ६३ नायनमार के इतिहास
3. Thirumurai Kanda Chozan
4. Thirumurai Kanda Puranam