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मनुनीति चोल

(नगर की ख्याति – तिरुवारूर)

पेरिय पुराण में एक चोल राजा के जीवन में घटी एक घटना का वर्णन है जो न्याय पालन की पराकाष्ठा मानी जाती है। यह देश में शासक या शासन प्रणाली द्वारा निष्पक्ष न्याय का एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। चोल राजा न्यायप्रियता के कारण मनुनीति चोल के नाम से प्रसिद्ध थे। जब राजा व्यक्तिगत हानि की चिंता किए बिना न्याय को बनाए रखते है, तो यह स्वाभाविक है कि लोग प्रेम से रहेंगे और भूमि समृद्ध होगी।

राजा का जन्म सूर्यवंशी चोल परिवार में हुआ था। वे स्वयं मानो अपने देश के समस्त प्राणियों के  नेत्र एवं आत्मा थे। उन्होंने अनेक यज्ञों से प्रकृति की शक्तियों को प्रसन्न किया। शत्रुओं से रहित होकर देश समृद्ध था। वे मनु-नीति के प्रवर्तक थे और इस लिए वे मनुनीति चोल के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने तिरुवारूर मंदिर में शिव पूजा के लिए दान दिया। उनका एक पुत्र था जो वीर, विविध कलाओं में निपुण, अनुशासित और सुशील था। राजा का प्रिय पुत्र बड़ा होकर युवराज की उपाधि का पात्र बना। एक दिन राजा का वह युवा पुत्र अपने मित्रों और सेना के साथ राजधानी तिरुवारूर के मुख्य मार्ग पर अपने रथ पर आरूढ़ होकर जा रहा था। उस समय एक बछड़ा, जो वहाँ हो रही गतिविधि से अनिभिज्ञ था, अचानक मार्ग में आ गया। आह! वह छोटा जीव रथ के चक्र के नीचे आ गया और उसके प्राण चले गये। अपने बछड़े को मार्ग पर मृत देखा, गोमाता शोक से व्याकुल हो गई। वह मृत बछड़े के पास बैठ कर उसे चाटने, रोने और पीड़ा में व्यथित होने लगी।

राजा का पुत्र इस घटना से स्तब्ध था। वह अपराधबोध से व्याकुल था और उसे लगा कि अपने न्यायप्रिय पिता के नाम को कलंकित करने के लिए हि उसका जन्म हुआ था। वह अपने पिता के समक्ष आने से पूर्व इस कृत्य के लिए प्रायश्चित करने के लिए विद्वानों के पास गया। इस मध्य दुःखी गाय राजमहल गई और अपने सींग से न्याय की घंटी बजाई। राजा दौड़कर द्वार पर गया और देखा कि रोती हुई गाय घंटी बजा रही थी। वार्ता से परिचित एक मंत्री ने राजा को रथ के नीचे बछड़े की अप्रत्याशित मृत्यु के विषय में बताया। राजा को असहनीय दुःख हुआ। व्यथित गाय को देखने में असमर्थ, वे वहाँ दुःखित बैठ गये और मंत्रियों से पूछा कि वे इस कुकृत्य को सुधारने के लिए क्या कर सकते थे। मंत्रियों ने परामर्श दिया कि उन्हें गौहत्या के लिए वैदिक विद्वानों द्वारा निर्धारित प्रायश्चित अपने पुत्र द्वारा करना चाहिए।

राजा, जो न्याय के नियमों का पालन नाम मात्र से ही नहीं, अपितु कर्म से भी करते थे, मंत्रियों के उत्तरों से क्रुद्ध हो गये। "मैं इस अनाश्रित गाय के साथ अन्याय कैसे कर सकता हूँ, केवल इसलिए कि यह मेरे पुत्र का अपराध था। जब मैं किसी को भी अन्य जीव के प्राण लेने के लिए उचित दण्ड देता हूँ, तो मैं अपने पुत्र के साथ पृथक व्यवहार कैसे कर सकता हूँ? क्या यह राजा का कर्तव्य नहीं है कि वह सुनिश्चित करे कि उसके राज्य में रहने वाले लोगों के प्राण उसके, उसके सहयोगियों, शत्रुओं, चोरों और दूसरे प्राणियों से सुरक्षित रहे? यदि मैं अपने पुत्र के लिए दूसरा नियम बनाऊँ तो क्या न्याय की प्राचीन व्यवस्था का उपहास नहीं होगा?" राजा ने उद्विग्न होकर कहा। मंत्रियों ने कहा कि इस त्रुटि के प्रायश्चित के लिए सदैव से ही तप करने की प्रथा रही थी और इसलिए उस परंपरा का पालन करना न्यायसंगत होगा। राजा उनके परामर्श से क्रुद्ध हो गए और बोले, "आप न्याय के पीछे की भावना और सच्चाई को नहीं समझते हैं। भगवान शिव के पवित्र स्थल तिरुवारूर में प्रकट होने से संबंधित प्राणी को मारकर बहुत बड़ा पाप किया गया है। इस कृत्य का एकमात्र प्रायश्चित यही होगा कि मेरे प्रिय पुत्र को उसी तरह मार दिया जाए जिस प्रकार बछड़े को मारा गया था।" मंत्री डर गए और वहाँ से चले गए। राजा ने एक मंत्री के पुत्र को आदेश दिया कि वह उनके पुत्र को रथ से कुचल दे। राजा के आदेश के पालन के स्थान पर मंत्री के पुत्र ने आत्महत्या कर ली।

राजा को इस बात की चिंता नहीं थी कि उनका पुत्र ही उनका एकमात्र उत्तराधिकारी था। उन्होंने स्वयं अपने पुत्र को रथ से कुचल दिया। वे प्रतापी राजा अपने राज्य में रहने वाले सभी प्राणियों के प्रति न्याय करने के कारण इतिहास में ऊंचे उठ खड़े हुए। राजा के न्याय के प्रति दृष्टिकोण को देखकर देश की प्रजा रो पड़ी। दिव्य न्याय के प्रतीक, वृषभध्वज, को स्थापित करने वाले ईश्वर, अपनी पत्नी पार्वती के साथ देवताओं की स्तुति के मध्य क्षितिज पर प्रकट हुए। राजा ने पशुपति को प्रणाम किया। परमेश्वर ने राजा को न्याय के प्रति उनकी निष्ठा के लिए आशीर्वाद दिया और उनकी कृपा से बछड़ा और राजा और मंत्री के पुत्र पुनरजीवित हो गए। गाय और राजा दोनों को अपनी पीड़ा से निवारण प्राप्त हुआ। वे भक्त जिनके लिए ऐसे असाधारण कार्य संभव थे, उस पवित्र नगर तिरुवारूर में रहते थे। महान चोल राजा द्वारा न्याय की सच्ची भावना का पालन हमारे मन में सदैव रहें।

हर हर महादेव 

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 

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