ईश्वर के पवित्र निवास कैलाश में, जगत जननी शक्ति ने पशुपति से पवित्र आगमों के विषय में सुना। प्रभु ने उनसे कहा कि आगमों का सार, जो उन्हें प्रसन्न करता है, वह पूजा हि है। यह सुनकर देवी आगम विधि से परमेश्वर की पूजा करने की इच्छुक हो गई। उन्होंने आगम स्वरूप भगवान से अपनी इच्छा व्यक्त की। भगवान ने उनकी इच्छा को आशीर्वाद देते हुए उन्हें कांची जाने के लिए कहा, जहाँ वे एक आम के वृक्ष के नीचे प्रकट हुए थे। पराशक्ति, जो सभी क्रिया और इस सम्पूर्ण जगत की आधार शक्ति है, ने शास्त्रों द्वारा प्रशंसित ईश्वर की पूजा प्रारंभ की।
देवी अनेक प्राणियों तथा देवों के साथ कांची में आईं। महापद्म नामक सर्प ने उनका स्वागत किया तथा ब्रह्मा और विष्णु द्वारा स्तुतित उनके चरणों को अपने शीर्ष पर रखकर उनसे उस अपने बिल में रहने की प्रार्थना की। वहां रहकर, परिसर में सभी प्राणियों के आह्लाद और प्रेम को बढ़ाते हुए, वेदों द्वारा स्तुतित देवी ने उस आम के वृक्ष की खोज प्रारंभ की जिसके नीचे भगवान का वह रूप था, जिसकी वे पूजा करना चाहती थीं। किन्तु वे उसे पाने में असमर्थ थीं। उन्होंने प्रभु के दर्शन के लिए तपस्या करने का निर्णय लिया। अपने हृदय में ईश्वर का ध्यान और पवित्र पंचाक्षरों का जाप करते हुए, कराञ्जलीबद्ध, माता ने एक घोर तपस्या की। लंबी तपस्या के पश्चात ही दुर्लभ दर्शन देने वाले प्रभु, एक आम के वृक्ष की जड़ में देवी के समक्ष प्रकट हुए। देवी प्रसन्न हुईं तथा वे अपनी पूरी भक्ति के साथ आगमों में वर्णित विधियों से भगवान की पूजा करने के लिए दौड़ पड़ीं।
आगमों को ध्यान में रखते हुए, वे पूजा के लिए पुष्प लेकर आईं। उन्होंने भगवान का अभिषेक कम्बै नदी के स्वच्छ जल से किया, चंदन और पुष्पों से उनका श्रृंगार किया और उस परम ज्योति के समक्ष, ब्रह्माण्ड की रानी ने धूप और दीप से आराधना की। इस प्रकार उन्होंने शुद्ध भक्ति के साथ आगमों के अनुसार शिव पूजा की। योगेश्वर की यह भव्य पूजा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। एक दिन लीला करते हुए, गंगा के प्रलयरूपी जल को अपनी जटाओं में धारण करने वाले परमेश्वर ने, कम्बै नदी में बाढ़ ला दी। जल किनारों को तोड़ कर उस स्थान की ओर शीघ्रता से बढ़ने लगा, जहां देवी पूजा में लीन थीं। वे, भगवान की प्रथम भक्त, बढ़ते जल को देखकर व्याकुल हो गईं। नदी को उस पवित्र स्थान में प्रवेश करने से रोकने के लिए, उन्होंने अपने हाथों से जलप्रवाह को रोकने की चेष्टा की। उनके करों के एक संकेत से जगत में क्या-क्या नहीं रुकता, किन्तु कृपा की यह बाढ़, परमपिता की लीला, नहीं रुकी और आगे बढती गई। ईश्वरभक्ति के लिए आदर्श स्थापित करती हुई देवी ने भगवान के उस रूप को आलिंगन कर लिया। अद्वितीय प्रेम और व्याकुलता से उन भक्त ने भगवान के उस रूप को अपने वक्षस्थल, कंकण आभूषित हाथ और मुख से दृढ़ धर लिया, तथा भगवान को अपनी अद्भुत भक्ति में बांध लिया।
सभी शक्तियों से परे भगवान ने देवी की प्रेमशक्तिवश अपना रूप परिवर्तित कर लिया। आगम के अनुसार माँ शक्ति की पूजा से प्रसन्न, भगवान ने उन्हें वरदान दिए। देवी ने विनम्रतापूर्वक कहा कि पूजा अभी पूर्ण नहीं हुई है और इसे पूर्ण करके स्वीकार करने की विनती की। भगवान ने कहा कि माँ की पूजा कभी न समाप्त होने वाली पूजा है। माता ने परमेश्वर से प्रतिदिन उनकी पूजा का आनंद लेने, मनुष्यों द्वारा उस स्थल पर जगत कल्याण के लिए अच्छे कर्म और दान करने और नगर के भक्तों के लिए आशीर्वाद मांगा। इसके पश्चात देवी ने भक्तों के पापों को दूर करने और उन्हें सत्य के मार्ग पर लाने के लिए कामकोट्टम में अपना निवास बनाया।
यह घटना पेरिय पुराण के तिरुकुरिपुतोंड नायनार पुराणम में वर्णित है। इस अध्याय में कामकोट्टम और कांचीपुरम की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है।
हर हर महादेव