तिरुवारूर, सुंदर मूर्ति नायनार की भूमि, में जन्म त्रिपुरान्तक शिव के ध्यान के लिए सार्थक और उनके के प्रति भक्ति के लिए स्वाभाविक प्रेरणा प्रदान करती है। उसी प्रसिद्ध नगर में दण्डियडिकल का जन्म हुआ। मानो इंद्रियों से परे केवल चिदाकाश में स्थित भगवान शिव का अनुभव करने हेतु ही वे जन्म से दृष्टिहीन थे। वे संसार को तो नही देख सकते, किन्तु उनकी सत्य देखने की दृष्टि तीव्र थी। उन्होंने भगवान को प्रेम के रूप में देखा और स्वयं को तिरुवारूर के त्यागेश्वर को समर्पित कर दिया। वे आरूर के मंदिर में दर्शन करते, परिक्रमा करते और 'नम: शिवाय' जपते।
एक बार दण्डियडिकल को यह सोचकर बहुत चिंता हुई कि मंदिर के पश्चिमी भाग में स्थित तटाक पर जैनों ने अतिक्रमण कर लिया था। जलंधर के संहारक को समर्पित उस स्थान की दयनीय स्थिति ने इस निस्वार्थ निष्ठावान सेवक की व्याकुलता को बढ़ा दिया। वे तटाक की रक्षा कर भगवत सेवा करना चाहते थे। उन्होंने तटाक के गड्ढे में एक खंभा गाड़ा, उसमें एक रस्सी बांधी और रस्सी की दूसरी ओर को तट पर स्थित स्तंभ से बांध दिया। रस्सी की सहायता से वे धीरे-धीरे तटाक के समीप गये, रेत खोदी और रस्सी की सहायता से तट पर लौटकर रेत को वहां डाल दिया। वे यह सब भगवान का नाम जपते हुए कर रहे थे। उस स्थान पर रहने वाले जैन शिवभक्त के कार्यों से चिढ़ गए। उन्होंने नायनार को अहिंसा पर शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया कि तटाक खोदने के कारण वहाँ रहने वाले छोटे जीवों को कष्ट होगा। भक्त ने उन्हें उत्तर दिया कि वे केवल भगवान चंद्रचूड़ की सेवा कर रहे थे। जब नैतिकता की शिक्षा का प्रभाव नही पड़ा तो उन जैनों ने उन्हें बधिर कहकर अपमानित किया पर वे उनकी उपेक्षा कर अपने कार्य में लगे रहे। असभ्य आक्रांता नायनार की चक्षुहीनता पर टिप्पणी करते रहे। उन्होंने बस इतना ही उत्तर दिया कि आँख के अंधे होते हुए भी उन्होंने सत्य का प्रकाश देखा था, किन्तु वे आक्रांता दृष्टि शक्ति होते भी अज्ञानता के अंधेरे में रह रहे थे। नायनार ने आगे प्रश्न किया, 'यदि मैं अपनी दृष्टि शक्ति वापस पा लूं और आप लोग महान भगवान की कृपा से अपनी शक्ति खो दें तो आप क्या करेंगे?' जैनों ने घोषणा की कि यदि ऐसा हुआ तो वे इस क्षेत्र को छोड़ देंगे। तद्पश्चात उन्होंने नायनार के रस्सी और डंडे को छीन लिया।
जैनों द्वारा उनकी भगवत सेवा में बाधा डालने से क्रोधित होकर, भक्त ने महादेव के मंदिर में दंडवत करते हुए इस अपमान से उनका उद्धार करने की प्रार्थना की। वे अपने मठ पहुँचे, अपूर्ण सेवा पर विलाप करते हुए वे थक कर सो गए। अपने भक्तों के लिए एकमात्र शरण भगवान, भक्त की बाधाओं को पार कर की गई सेवा से प्रसन्न होकर उनके स्वप्न में प्रकट हुए। सांत्वना देते हुए प्रभु ने उन्हे आश्वासन दिया कि अगले दिन उनकी दृष्टि वापस आ जाएगी और आक्रान्ता अपनी दृष्टि खो देंगें। भगवान उस राज्य के राजा के स्वप्न में भी आए और उन्हे जैनों द्वारा दण्डियडिकल को दी गई कष्टों के विषय में बताया। आश्चर्यचकित राजा, भगवान की प्रशंसा करते हुए मंदिर पहुँचे। उन्होंने भक्त से समस्या के विषय में पूछा। नायनार ने बताया कि कैसे जैनों ने उनकी सेवा में बाधा डाली, उन्हे अपमानित किया तथा डंडे और रस्सियों को छीन लिया। नायनार ने उन जैनों की घोषणा के विषय में भी बताया कि अगर उन्हे दृष्टि की शक्ति मिल जाए और वे अपनी दृष्टि खो दें तो वे राज्य त्याग देंगें। राजा ने जैनों से भी इस विषय की पुष्टि की।
भक्त, राजा और जैन मंदिर के तटाक पर पहुँचे। राजा ने भक्त से अनुरोध किया कि वे भगवान की कृपा सिद्ध करें। "यदि मैं शंकर का सच्चा सेवक हूँ, तो मुझे दृष्टि की शक्ति मिल जाए और इन दुष्टों की दृष्टि खो जाएं जिससे यह सिद्ध हो जाएगा कि परम सत्य केवल भगवान शिव हैं!", ऐसा कहते हुए भक्त ने तटाक में आप्लावन किया। तटाक से बाहर निकलते ही नायनार को चारों ओर स्पष्ट दिखने लगा। जैन अचानक देखने में असमर्थ हो गए और संघर्ष करने लगे। राजा ने घोषणा की कि जैनों का उद्देश्य ठीक नही था। उन्होंने उन्हें राज्य छोड़ने का आदेश दिया। जो अंधकार अब तक केवल उनके मन में अज्ञानता के रूप में था, वह उनकी आँखों के समक्ष आ गया। आक्रांता गिरते-पड़ते भाग गए। राजा ने उन्हें बाहर निकाल दिया, भक्त को प्रणाम किया और चले गए। ब्रह्मा और विष्णु तक के लिए वांछित, भगवान के चरणों में शरण लेने वाले दृढ़ निश्चयी भक्त ने अपना पवित्र कार्य पूर्ण किया। उस तटाक के जीर्णोद्धार के पूर्ण होने पर, वे पवित्र पंचाक्षरों के जाप के परमानंद में लीन हो गए और अंततः भगवान के करुणामय चरणों को प्राप्त हुए। नेत्रहीन और कई कष्टों को पार कर भी सेवा करने का दण्डियडिकल नायनार का दृढ़ संकल्प सदैव मन में रहे।
गुरु पूजा : पंगुणी / सदयम या मीन / शतभिष
हर हर महादेव
See also:
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र