महान आनाय नायनार का जीवन एक शाश्वत प्रेरणा स्त्रोत्र है। वे बहुत ही सरल जीवन जीते थे। उन्होंने योग की चरम अवस्था प्राप्त की और अंत में ईश्वर के प्रति प्रेम की शक्ति के बल पर मुक्ति और परमपद भी प्राप्त किया। वे संगीत द्वारा भगवान की आराधना करने वाले भक्त थे। उनका जन्म मेन्मल नाडु (मेल मलनाडु) के मंगलम नगर में हुआ था। वह भूमि वनों से भरी हुई थी। वहाँ चमेली, कुमुद और कई अन्य फूलों की सुगंध मधुमक्खियों के झुंड को आकर्षित करने के लिए एक दूसरे से स्पर्धा करतीं थीं। यह वही धन्य भूमि है जो आनाय के भगवान शिव के प्रति प्रेम से सुगंधित थी, भगवान की स्तुति में उनके संगीत की प्रतिध्वनि से व्याप्त थी और जिसके कण कण में आनाय ने भगवान शंकर को पाया था।
आनाय एक चरवाहा थे और गाँव की गायों की देखभाल करते थे। धन्य हैं गायें जो पांच पवित्र पदार्थ (पंचगव्य) देती हैं जिनका उपयोग भगवान के अभिषेक में होता हैं! धन्य हैं गायें जिनके अंग में सभी देवता विराजमान हैं! धन्य हैं गायें जो भगवान के भक्तों के धन अर्थात पवित्र भस्म प्रदान करती हैं! आनाय ने अपने वाक, तन, मन और कर्म से भूतों के साथ नृत्य करने वाले भगवान शिव की सेवा की। वे प्रतिदिन गायों को नगर के बाहर घास चराने ले जाते थे। जैसे भगवान एक पत्ता या एक पुष्प के अर्पण से भी संतुष्ट हो जाते हैं और मनोवांछित वरदान देते हैं, उसी प्रकार आनाय की देखरेख में गायें पौष्टिक घास चरती थीं और बहुत सारा दूध देती थीं। उन्होंने गायों की रोग और वन्य पशुओं से रक्षा की।
उनके हृदय का भगवत प्रेम उनके होठों से लगी हुई बाँसुरी की मधुर धुन के रूप में बहता था। मधुर संगीत पूरे वन में इस प्रकार व्याप्त होता था मानो भगवान का अभिषेक किया जा रहा हो। उनकी बाँसुरी उत्तम बांस की थी और शास्त्रों में निर्धारित नियमों के अनुसार बनाई गई थी (पेरिय पुराणम में आनाय नायनार पुराणम के गीत 13 में बताया गया है कि बाँसुरी कैसे बनाई जाती है)। उन्होंने बड़ी कुशलता से भगवान के दिव्य पंचाक्षर को संगीत के सात स्वरों के तंतुओं में बांधकर बाँसुरी से धुन बनाया था।
हृदय में परपूर्ण प्रेम के साथ उस शुभ दिन पर, आनाय ने अपने शीर्ष को सुगंधित पुष्पों से सजाया, अपने माथे पर पवित्र भस्म धारण किया, जिससे मृत्युदेव भी भयभीत होते हैं, अपने भस्म विभूत शरीर पर एक सुंदर माला पहना, अपनी बाँसुरी और छड़ी लिया, और गायों को चराने ले गए। वर्षा ऋतु के आगमन का समय था, जिसका संकेत नृत्य करते मोर और हवा में लहराती लताओं के गीत दे रहीं थीं। वे अमलतास (तमिल में कोंन्रै) वृक्षों के सुंदर उद्यान में पहुंचे। अमलतास के पुष्प को देखकर उन्हे उन कृपालु भगवान का स्मरण हुआ जो उस पुष्प को धारण करते हैं। अब उन्हे वहाँ केवल शिव ही दिखाई दे रहे थे। जहाँ भी उन्होंने देखा सभी पुष्प परमेश्वर के रूप में ही दिखाई देने लगे। उनका मन उस रूप का ध्यान करने लगा। ईश्वर के प्रति उनके असीम प्रेम के कारण उनकी सोच निम्न हो गई थी। उन्होंने अपनी बाँसुरी द्वारा अपनी अकथनीय भावनाओं को व्यक्त करना प्रारंभ किया। उनकी भावनाएँ उनकी बाँसुरी के सात स्वरों में निर्धारित पवित्र पंचाक्षर में परिवर्तित हो गईं। (पेरिय पुराणम में आनाय नायनार पुराणम के गीत 24 - 28 में बाँसुरी बजाने की काला का सुंदर वर्णन उल्लिखित है)।
आनाय के बाँसुरी से निकलती धुन किसी को मधुमक्खियों के गाने जैसे लग रही थी; जबकि किसी और को बाँस के वन में चल रही धीमी हवा लगी और फिर किसी और को भोर की सुखद ध्वनि लगी। मीठे फूलों से मधुपान करके मदमस्त मधुमक्खियों के समान, गायों ने घास चबाना बंद कर ऊपर की ओर देखा; बछड़ों ने बीच में ही दूध पीना बंद कर दिया; नाचते हुए मोर अचानक वहाँ प्रकट हो गये; बैल तथा अन्य वन्य पशु वहाँ आनंद से बैठ गये। मोरों के समीप सर्प कुंडलित बैठ गए; शेर और हाथी एक साथ आये; हिरणों ने बाघों के साथ आने का साहस किया। हवा धीमी हो गई; नदियों और झरनों ने अपना प्रवाह शान्त कर लिया; बादलों ने अपनी गर्जना रोक ली। आनाय नायनार की बाँसुरी को सुनने के लिए पूरी प्रकृति रुक गई। उस आनंदमय संगीत ने देवताओं के हृदय को भी भर दिया और पूरी सृष्टि परमानन्द में आच्छादित हो गई।
जो संगीत पातक नहीं सुन सके, वह सर्प कर्णिकाओं से सुशोभित भगवान तक पहुँच गया। अनुग्रह के रूप जिनसे सामवेद का उद्भव हुआ, वे जगन्माता के साथ वहाँ पधारे, बिना देवताओं, गणों और ऋषियों के ध्वनि के, ताकि वे आनाय नायनार के संगीत में विघ्न न डाले। सर्वशक्तिमान भगवान ने आनाय नायनार को आशीर्वाद दिया, "इसी अवस्था में मेरे साथ रहो।" देवताओं द्वारा बरसाए गए फूलों की वर्षा के बीच चलते हुए, आनाय नायनार उस निवास स्थान पर पहुंचे जहाँ भगवान शंकर आनंद तांडव करते हैं। हमे आनाय नायनार की कथा सदैव समराण रहे जिन्होने भगवान को संगीत अर्पित कर, निर्मल प्रेम के साथ इस संसार में रहते ही सर्वव्यापी भगवान के दर्शन कर लिए और अंत में परमपद भी प्राप्त कर लिए।
गुरु पूजा : कार्तिकै / हस्तम या वृश्चिक / हस्ता
हर हर महादेव
63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र